Thursday, October 16, 2025

IGNOU Solved Assignment / BPCG 175 Hindi / July 2025 and January 2026 Sessions


Bachelor's of Arts 

BPCG 175

IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)

जीवन यापन के लिये मनोविज्ञान


सत्रीय कार्य – I

 

प्रश्न 1. आत्म और पहचान पर पालन-पोषण शैलियों और सामाजिक-संरचनात्मक प्रभाव की चर्चा कीजिए।

उत्तर:

आत्म (Self) और पहचान (Identity) दो महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक अवधारणाएं हैं जो किसी व्यक्ति के अस्तित्व के केंद्र में होती हैं। 'आत्म' व्यक्ति की अपनी क्षमताओं, गुणों और अस्तित्व की व्यक्तिगत धारणा को संदर्भित करता है, जबकि 'पहचान' में वे सामाजिक भूमिकाएँ, समूह सदस्यता और व्यक्तिगत अर्थ शामिल होते हैं जो व्यक्ति को परिभाषित करते हैं। इन दोनों का विकास एक जटिल प्रक्रिया है जो कई कारकों से प्रभावित होती है, जिनमें पालन-पोषण की शैलियाँ और सामाजिक-संरचनात्मक प्रभाव प्रमुख हैं।

पालन-पोषण शैलियों का प्रभाव

डायना बॉमरिंड द्वारा पहचानी गई चार मुख्य पालन-पोषण शैलियाँ बच्चे के आत्म-सम्मान और पहचान निर्माण पर गहरा प्रभाव डालती हैं:

1. आधिकारिक (Authoritative) शैली: इस शैली में माता-पिता बच्चों से उच्च उम्मीदें रखते हैं, लेकिन साथ ही वे स्नेही, सहायक और संवाद के लिए खुले होते हैं। वे नियम बनाते हैं लेकिन उनके पीछे के कारणों को भी समझाते हैं। इस माहौल में पले-बढ़े बच्चों में आमतौर पर उच्च आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता और एक सकारात्मक आत्म-अवधारणा विकसित होती है। वे अपनी पहचान को आत्मविश्वास के साथ खोजते हैं और सामाजिक रूप से सक्षम होते हैं।

2. सत्तावादी (Authoritarian) शैली: इसमें माता-पिता बहुत सख्त होते हैं और बिना किसी बातचीत के नियमों का पालन करने की मांग करते हैं। वे स्नेह कम दिखाते हैं और सजा पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे वातावरण में बच्चे अक्सर आज्ञाकारी तो होते हैं, लेकिन उनमें आत्म-सम्मान की कमी, निर्णय लेने में कठिनाई और विद्रोह की भावना विकसित हो सकती है। उनकी पहचान अक्सर दूसरों की अपेक्षाओं से दब जाती है।

3. अनुमोदक (Permissive) शैली: इस शैली के माता-पिता बहुत स्नेही होते हैं लेकिन नियम और सीमाएँ बहुत कम निर्धारित करते हैं। वे बच्चों की हर मांग पूरी करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, बच्चों में आत्म-नियंत्रण की कमी हो सकती है और वे आत्मकेंद्रित हो सकते हैं। उन्हें अपनी पहचान को संरचित करने में कठिनाई होती है क्योंकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन और अनुशासन नहीं मिलता।

4. असम्मिलित (Neglectful) शैली: इस शैली में माता-पिता न तो कोई मांग करते हैं और न ही कोई स्नेह दिखाते हैं। वे अपने बच्चों की भावनात्मक या शारीरिक जरूरतों को पूरा नहीं करते। यह सबसे हानिकारक शैली है, जिससे बच्चों में बहुत कम आत्म-सम्मान, सामाजिक कौशल की कमी और अपनी पहचान के प्रति उदासीनता विकसित होती है।

सामाजिक-संरचनात्मक प्रभाव

व्यक्ति का आत्म और पहचान केवल पारिवारिक दायरे में ही नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के भीतर भी आकार लेते हैं:

• संस्कृति: व्यक्तिवादी संस्कृतियाँ (जैसे पश्चिमी देश) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और विशिष्टता पर जोर देती हैं, जिससे एक स्वतंत्र 'आत्म' का निर्माण होता है। इसके विपरीत, सामूहिकतावादी संस्कृतियाँ (जैसे कई एशियाई देश) समूह के सामंजस्य, सामाजिक दायित्वों और अंतर्संबंधों पर जोर देती हैं, जिससे एक परस्पर निर्भर 'आत्म' का विकास होता है।

• सामाजिक वर्ग: आर्थिक स्थिति और सामाजिक वर्ग व्यक्ति को उपलब्ध अवसरों, शिक्षा और संसाधनों को प्रभावित करते हैं, जो सीधे तौर पर उसकी आकांक्षाओं, आत्म-मूल्य और पहचान को आकार देते हैं।

• लिंग भूमिकाएं: समाज पुरुषों और महिलाओं के लिए कुछ व्यवहार, भूमिकाएँ और अपेक्षाएँ निर्धारित करता है। ये लैंगिक रूढ़िवादिताएं बचपन से ही व्यक्ति की पहचान और आत्म-अवधारणा को प्रभावित करती हैं कि उन्हें कैसा सोचना, महसूस करना और व्यवहार करना चाहिए।

• मीडिया और प्रौद्योगिकी: आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया और मास मीडिया पहचान निर्माण में एक शक्तिशाली भूमिका निभाते हैं। वे सौंदर्य, सफलता और जीवन शैली के मानक प्रस्तुत करते हैं जो विशेष रूप से किशोरों के आत्म-सम्मान और पहचान की खोज को प्रभावित कर सकते हैं।

निष्कर्षतः, आत्म और पहचान का विकास एक गतिशील प्रक्रिया है जो पालन-पोषण जैसी निकटतम अंतःक्रियाओं और संस्कृति एवं समाज जैसे व्यापक संरचनात्मक प्रभावों के बीच निरंतर संवाद का परिणाम है। एक सकारात्मक और स्वस्थ पहचान के निर्माण के लिए एक सहायक पारिवारिक वातावरण और एक समावेशी सामाजिक संरचना दोनों ही आवश्यक हैं।

 

प्रश्न 2. व्यक्तित्व के विभिन्न सिद्धांत पर चर्चा कीजिए। व्यक्तित्व पर भारतीय परिप्रेक्ष्य को भी दर्शाइए।

उत्तर:

व्यक्तित्व (Personality) उन विशिष्ट विचारों, भावनाओं और व्यवहारों के पैटर्न को संदर्भित करता है जो एक व्यक्ति को दूसरे से अलग करते हैं और जो समय और परिस्थितियों के अनुसार अपेक्षाकृत स्थिर रहते हैं। मनोविज्ञान में व्यक्तित्व को समझने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए गए हैं।

व्यक्तित्व के प्रमुख सिद्धांत

1. मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत (Psychoanalytic Theory): सिगमंड फ्रायड द्वारा प्रस्तावित यह सिद्धांत मानता है कि व्यक्तित्व तीन मुख्य घटकों - इड (Id), ईगो (Ego), और सुपरईगो (Superego) - के बीच संघर्ष का परिणाम है। फ्रायड ने अचेतन मन, बचपन के अनुभवों और यौन इच्छाओं की भूमिका पर जोर दिया। उनके अनुसार, व्यक्तित्व मनोलैंगिक विकास के विभिन्न चरणों (मौखिक, गुदा, लैंगिक आदि) से होकर विकसित होता है।

2. विशेषक सिद्धांत (Trait Theory): यह सिद्धांत व्यक्तित्व को स्थिर और स्थायी गुणों या 'विशेषकों' (Traits) के एक सेट के रूप में देखता है। गॉर्डन ऑलपोर्ट, रेमंड कैटेल और हैंस आइसेनक जैसे मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य विशेषकों की पहचान करने का प्रयास किया। इसका सबसे प्रसिद्ध मॉडल 'बिग फाइव' (Big Five) है, जिसमें व्यक्तित्व के पांच मुख्य आयाम शामिल हैं: अनुभव के प्रति खुलापन (Openness), कर्तव्यनिष्ठा (Conscientiousness), बहिर्मुखता (Extraversion), सहमति (Agreeableness), और मनोविक्षुब्धता (Neuroticism)।

3. मानवतावादी सिद्धांत (Humanistic Theory): कार्ल रोजर्स और अब्राहम मास्लो जैसे सिद्धांतकारों ने व्यक्तित्व के सकारात्मक पहलुओं, स्वतंत्र इच्छा और व्यक्तिगत विकास पर ध्यान केंद्रित किया। मास्लो ने 'आवश्यकता पदानुक्रम' (Hierarchy of Needs) का प्रस्ताव दिया, जिसमें आत्म-सिद्धि (Self-actualization) को सर्वोच्च लक्ष्य माना गया। रोजर्स ने 'आत्म-अवधारणा' (Self-concept) और 'बिना शर्त सकारात्मक सम्मान' (Unconditional Positive Regard) के महत्व पर जोर दिया।

4. सामाजिक-संज्ञानात्मक सिद्धांत (Social-Cognitive Theory): अल्बर्ट बंडुरा जैसे मनोवैज्ञानिकों का तर्क है कि व्यक्तित्व केवल आंतरिक बलों या बाहरी उत्तेजनाओं का परिणाम नहीं है, बल्कि यह अवलोकन, सीखने, सोचने और सामाजिक वातावरण के साथ पारस्परिक संपर्क का परिणाम है। बंडुरा ने 'पारस्परिक नियतिवाद' (Reciprocal Determinism) की अवधारणा दी, जिसमें व्यक्ति, व्यवहार और पर्यावरण एक-दूसरे को लगातार प्रभावित करते हैं।

व्यक्तित्व पर भारतीय परिप्रेक्ष्य

भारतीय दर्शन में व्यक्तित्व की अवधारणा पश्चिमी सिद्धांतों से भिन्न और अधिक आध्यात्मिक है। यह मुख्य रूप से सांख्य दर्शन और वेदों पर आधारित है।

• त्रिगुण सिद्धांत: भगवद्गीता और सांख्य दर्शन के अनुसार, प्रकृति (भौतिक दुनिया) तीन मौलिक गुणों या 'गुणों' से बनी है, और ये गुण मानव व्यक्तित्व को भी नियंत्रित करते हैं। ये तीन गुण हैं:

• सत्व (Sattva): यह गुण पवित्रता, ज्ञान, सद्भाव, शांति और खुशी से जुड़ा है। एक सात्विक व्यक्ति शांत, ज्ञानी, दयालु और आध्यात्मिक होता है।

• रजस (Rajas): यह गुण गतिविधि, जुनून, इच्छा, महत्वाकांक्षा और बेचैनी से जुड़ा है। एक राजसिक व्यक्ति कर्मठ, प्रतिस्पर्धी और भौतिकवादी सुखों के प्रति आकर्षित होता है।

• तमस (Tamas): यह गुण अंधकार, अज्ञान, जड़ता, आलस्य और विनाश से जुड़ा है। एक तामसिक व्यक्ति आलसी, भ्रमित और नकारात्मक प्रवृत्तियों वाला होता है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं, लेकिन किसी एक गुण की प्रधानता उसके व्यक्तित्व को निर्धारित करती है। लक्ष्य इन गुणों से परे जाकर संतुलन और मोक्ष प्राप्त करना है।

• पंचकोश सिद्धांत: तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णित यह सिद्धांत बताता है कि मानव अस्तित्व पांच परतों या 'कोशों' से बना है। ये कोश व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं, अन्नमय कोश (भौतिक शरीर) से लेकर आनंदमय कोश (आनंदमय आत्म) तक। एक स्वस्थ व्यक्तित्व इन सभी कोशों के बीच सामंजस्य स्थापित करने से बनता है।

निष्कर्षतः, जहाँ पश्चिमी सिद्धांत व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारकों के संदर्भ में समझाते हैं, वहीं भारतीय परिप्रेक्ष्य इसे एक गहरे आध्यात्मिक और नैतिक ढांचे के भीतर देखता है, जिसका अंतिम लक्ष्य आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार है।

 

सत्रीय कार्य – II

 

प्रश्न 3. निर्णयन की प्रकृति और चरणों का वर्णन कीजिए। प्रभावी निर्णयन की रणनीतियों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

निर्णयन (Decision-making) एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसमें उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चयन किया जाता है। यह व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है। इसकी प्रकृति लक्ष्य-उन्मुख होती है, जिसका उद्देश्य किसी समस्या को हल करना या किसी अवसर का लाभ उठाना होता है। निर्णयन में तर्क, अंतर्ज्ञान और अनुभव सभी शामिल हो सकते हैं।

निर्णयन के चरण:

एक व्यवस्थित निर्णयन प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शामिल होते हैं:

1. समस्या की पहचान: सबसे पहले यह स्पष्ट रूप से परिभाषित करना आवश्यक है कि निर्णय किस बारे में लेना है।

2. सूचना एकत्र करना: समस्या से संबंधित प्रासंगिक जानकारी और डेटा इकट्ठा करना।

3. विकल्पों की पहचान: समस्या के समाधान के लिए संभावित विकल्पों की एक सूची बनाना।

4. विकल्पों का मूल्यांकन: प्रत्येक विकल्प के फायदे, नुकसान, लागत और परिणामों का विश्लेषण करना।

5. सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन: मूल्यांकन के आधार पर सबसे उपयुक्त विकल्प को चुनना।

6. निर्णय का कार्यान्वयन: चुने हुए विकल्प को कार्य रूप में परिणत करना।

7. परिणामों की समीक्षा: निर्णय के परिणामों का मूल्यांकन करना और यह देखना कि क्या समस्या का समाधान हुआ।

प्रभावी निर्णयन की रणनीतियाँ:

1. लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-Benefit Analysis): प्रत्येक विकल्प से जुड़े संभावित लाभों और लागतों की तुलना करना।

2. पक्ष-विपक्ष सूची बनाना: किसी विकल्प के पक्ष और विपक्ष में तर्कों को सूचीबद्ध करना।

3. समूह चर्चा (Brainstorming): दूसरों के साथ विचार-विमर्श करके नए और विविध विकल्प खोजना।

4. संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों से बचना: पुष्टि पूर्वाग्रह (Confirmation Bias) जैसी मानसिक त्रुटियों के प्रति सचेत रहना, जो हमारे निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं।

5. दीर्घकालिक सोच: तात्कालिक लाभ के बजाय निर्णय के दीर्घकालिक परिणामों पर विचार करना।

एक प्रभावी निर्णयकर्ता इन चरणों और रणनीतियों का उपयोग करके अधिक तार्किक और सफल निर्णय ले सकता है।

 

प्रश्न 4. भावदशा विकार के प्रकारों का वर्णन कीजिए। भावदशा विकार के कारण संबंधी कारकों और उपचार की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

भावदशा विकार (Mood Disorders), जिन्हें भावात्मक विकार भी कहा जाता है, मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों का एक समूह है जिसमें व्यक्ति की भावनात्मक स्थिति या मनोदशा में गंभीर और लगातार गड़बड़ी होती है। यह व्यक्ति के दैनिक जीवन, काम और रिश्तों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

भावदशा विकार के प्रकार:

1. प्रमुख अवसादग्रस्तता विकार (Major Depressive Disorder): इसमें कम से कम दो सप्ताह तक लगातार उदासी, निराशा और गतिविधियों में रुचि की कमी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं।

2. द्विध्रुवी विकार (Bipolar Disorder): इसमें व्यक्ति की मनोदशा अवसाद (Depression) के दौरों और उन्माद (Mania) या अल्पोन्माद (Hypomania) के दौरों के बीच बदलती रहती है। उन्माद के दौरान व्यक्ति अत्यधिक ऊर्जावान, उत्साहित और अविवेकी हो सकता है।

3. डिस्टीमिया (Dysthymia): यह एक हल्का लेकिन दीर्घकालिक (कम से कम दो साल तक चलने वाला) अवसाद है।

4. साइक्लोथाइमिक विकार (Cyclothymic Disorder): इसमें हल्के अवसाद और अल्पोन्माद के कई दौर होते हैं जो कम से कम दो साल तक चलते हैं।

कारण संबंधी कारक (Etiology):

भावदशा विकारों का कोई एक कारण नहीं होता, बल्कि यह कई कारकों का परिणाम है:

• जैविक कारक: आनुवंशिकी (परिवार में इतिहास), मस्तिष्क की संरचना और न्यूरोट्रांसमीटर (जैसे सेरोटोनिन और डोपामाइन) के स्तर में असंतुलन।

• मनोवैज्ञानिक कारक: नकारात्मक सोच पैटर्न, कम आत्म-सम्मान, तनाव और आघात (Trauma)।

• सामाजिक और पर्यावरणीय कारक: जीवन की तनावपूर्ण घटनाएं जैसे किसी प्रियजन की मृत्यु, नौकरी छूटना, या रिश्ते में समस्याएं।

उपचार:

उपचार का उद्देश्य लक्षणों को प्रबंधित करना और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है। मुख्य उपचार विधियाँ हैं:

1. मनोचिकित्सा (Psychotherapy): संज्ञानात्मक-व्यवहार थेरेपी (CBT) और अंतर्वैयक्तिक थेरेपी (IPT) जैसी थेरेपी व्यक्ति को नकारात्मक विचार पैटर्न को पहचानने और बदलने में मदद करती हैं।

2. औषधि (Pharmacotherapy): एंटीडिप्रेसेंट (अवसाद के लिए) और मूड स्टेबलाइजर्स (द्विध्रुवी विकार के लिए) जैसी दवाएं मस्तिष्क में रासायनिक संतुलन को ठीक करने में मदद करती हैं।

आमतौर पर, सर्वोत्तम परिणामों के लिए मनोचिकित्सा और दवाओं का संयोजन उपयोग किया जाता है।

 

प्रश्न 5. संवेगों का अर्थ और महत्व की व्याख्या कीजिए। सांवेगिक बुद्धि के संप्रत्यय पर चर्चा कीजिए।

उत्तर:

संवेग (Emotion) एक जटिल मनोवैज्ञानिक अवस्था है जिसमें व्यक्तिपरक अनुभव, शारीरिक प्रतिक्रियाएं (जैसे हृदय गति का बढ़ना) और अभिव्यंजक व्यवहार (जैसे मुस्कुराहट या रोना) शामिल होते हैं। यह किसी आंतरिक या बाहरी घटना की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। संवेग तीव्र और अल्पकालिक होते हैं।

संवेगों का महत्व:

संवेग केवल भावनाएं नहीं हैं, बल्कि वे हमारे जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं:

1. उत्तरजीविता (Survival): भय जैसे संवेग हमें खतरे से बचने के लिए प्रेरित करते हैं।

2. संचार (Communication): संवेग हमें अपनी भावनाओं और जरूरतों को दूसरों तक पहुंचाने में मदद करते हैं, जिससे सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं।

3. निर्णयन (Decision-making): हमारी भावनाएं हमारे निर्णयों को प्रभावित करती हैं और हमें बेहतर विकल्प चुनने में मार्गदर्शन कर सकती हैं।

4. प्रेरणा (Motivation): खुशी और रुचि जैसे संवेग हमें लक्ष्यों की ओर बढ़ने और नई चीजों को आज़माने के लिए प्रेरित करते हैं।

सांवेगिक बुद्धि (Emotional Intelligence - EI):

सांवेगिक बुद्धि का संप्रत्यय डैनियल गोलमैन द्वारा लोकप्रिय किया गया। यह अपनी और दूसरों की भावनाओं को समझने, पहचानने, प्रबंधित करने और प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता है। यह केवल भावनाओं पर नियंत्रण रखना नहीं है, बल्कि उन्हें बुद्धिमानी से समझना और व्यक्त करना है।

सांवेगिक बुद्धि के पांच मुख्य घटक हैं:

1. आत्म-जागरूकता (Self-Awareness): अपनी भावनाओं और उनके प्रभाव को पहचानना।

2. आत्म-नियमन (Self-Regulation): अपनी विघटनकारी भावनाओं और आवेगों को नियंत्रित करना।

3. प्रेरणा (Motivation): आंतरिक कारणों से लक्ष्यों की ओर काम करना।

4. समानुभूति (Empathy): दूसरों की भावनाओं को समझना और महसूस करना।

5. सामाजिक कौशल (Social Skills): रिश्तों को प्रबंधित करना और नेटवर्क बनाना।

सांवेगिक बुद्धि व्यक्तिगत और व्यावसायिक सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बेहतर संचार, मजबूत रिश्तों और प्रभावी नेतृत्व का आधार बनती है।

 

सत्रीय कार्य – III

 

6. परोप्रियम 

उत्तर:

परोप्रियम (Proprium) अमेरिकी मनोवैज्ञानिक गॉर्डन डब्ल्यू. ऑलपोर्ट द्वारा प्रस्तुत व्यक्तित्व (Personality) के सिद्धांत का एक केंद्रीय विचार है।

परोप्रियम पर टिप्पणी

परोप्रियम शब्द का अर्थ है 'स्व' (Self) का वह केंद्रीय और एकीकृत भाग जो व्यक्ति को निरंतरता, विशिष्टता और एकता प्रदान करता है। ऑलपोर्ट ने 'स्व' या 'अहं' (Ego) जैसे पारंपरिक शब्दों के बजाय 'परोप्रियम' का उपयोग किया, क्योंकि वह चाहते थे कि यह व्यक्ति के आंतरिक और अद्वितीय स्वरूप को दर्शाए।

यह कोई जन्मजात संरचना नहीं है, बल्कि जीवन भर चरणों में विकसित होता है। इसमें सात प्रमुख कार्य शामिल हैं, जैसे:

 * दैहिक स्व (Bodily Self)

 * आत्म-पहचान (Self-Identity)

 * आत्म-सम्मान (Self-Esteem)

 * आत्म-विस्तार (Self-Extension)

 * आत्म-छवि (Self-Image)

 * विवेकपूर्ण मुकाबला (Rational Coping)

 * स्वामित्वपूर्ण प्रयास (Propriate Striving)

स्वामित्वपूर्ण प्रयास परोप्रियम का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण चरण है, जो व्यक्ति को लक्ष्यों और मूल्यों की ओर प्रेरित करता है, जिससे वह अपने जीवन को अर्थ और दिशा प्रदान कर सके। यह व्यक्तित्व के गतिशील और विकसित होते स्वरूप को दर्शाता है।

 

7. संवेग, मनोदशा और भावनाएं

उत्तर:

संवेग (Emotion), मनोदशा (Mood) और भावनाएं (Feelings) अक्सर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किए जाते हैं, लेकिन इनमें सूक्ष्म अंतर हैं। संवेग एक विशिष्ट घटना या उत्तेजना के प्रति एक तीव्र, अल्पकालिक प्रतिक्रिया है (जैसे, खतरे को देखकर डर)। मनोदशा एक अधिक व्यापक, कम तीव्र और लंबे समय तक चलने वाली भावनात्मक स्थिति है जिसका कोई स्पष्ट कारण नहीं हो सकता है (जैसे, घंटों तक उदास महसूस करना)। भावनाएं संवेग का व्यक्तिपरक अनुभव हैं; यह वह है जिसे हम सचेत रूप से महसूस करते हैं। संक्षेप में, संवेग एक तीव्र प्रतिक्रिया है, मनोदशा एक स्थायी स्थिति है, और भावना उसका सचेत अनुभव है।

 

8. तनाव कार प्रकार

उत्तर:

तनाव कारक (Stressors) वे बाहरी या आंतरिक तत्व होते हैं जो व्यक्ति में मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक दबाव उत्पन्न करते हैं। इनका मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं— शारीरिक, मानसिक और सामाजिक।

शारीरिक तनाव कारक में बीमारी, थकान या चोट शामिल होती है।

मानसिक तनाव कारक जैसे चिंता, भय, असफलता या अत्यधिक कार्यभार व्यक्ति की मानसिक शांति को प्रभावित करते हैं।

सामाजिक तनाव कारक में पारिवारिक विवाद, आर्थिक कठिनाइयाँ या समाजिक दबाव प्रमुख हैं।

इन तनाव कारकों का उचित प्रबंधन आवश्यक है, क्योंकि दीर्घकालिक तनाव व्यक्ति के स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।

 

9. ब्रोंफेनब्रेनर का परिस्थितिकीय तंत्र सिद्धांत

उत्तर:

यूरी ब्रोंफेनब्रेनर का परिस्थितिकीय तंत्र सिद्धांत (Ecological Systems Theory) यह प्रस्तावित करता है कि मानव विकास को केवल तत्काल वातावरण के संदर्भ में नहीं समझा जा सकता, बल्कि यह विभिन्न पर्यावरणीय प्रणालियों के साथ जटिल अंतःक्रिया का परिणाम है। इस सिद्धांत में पांच स्तर शामिल हैं:

1. माइक्रोसिस्टम (Microsystem): तत्काल वातावरण (परिवार, स्कूल)।

2. मेसोसिस्टम (Mesosystem): माइक्रोसिस्टम के बीच संबंध (जैसे, माता-पिता और शिक्षक के बीच बातचीत)।

3. एक्सोसिस्टम (Exosystem): अप्रत्यक्ष वातावरण (जैसे, माता-पिता का कार्यस्थल)।

4. मैक्रोसिस्टम (Macrosystem): सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक मान्यताएं।

5. क्रोनोसिस्टम (Chronosystem): जीवनकाल में होने वाले परिवर्तन और ऐतिहासिक घटनाएं।

 

10. वृद्धता के प्रकार

उत्तर:

वृद्धता (Aging) एक जटिल प्रक्रिया है जिसे मुख्य रूप से तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है: जैविक वृद्धता, मनोवैज्ञानिक वृद्धता, और सामाजिक वृद्धता।

वृद्धता के प्रकार (Types of Aging)

जैविक वृद्धता (Biological Aging)

यह शरीर में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से संबंधित है, जैसे कोशिकाओं और ऊतकों का क्षरण, अंगों की कार्यक्षमता में कमी, और बीमारी के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता। यह समय के साथ सभी जीवों में होने वाली अनिवार्य प्रक्रिया है।

मनोवैज्ञानिक वृद्धता (Psychological Aging)

यह संज्ञानात्मक (cognitive) और भावनात्मक (emotional) परिवर्तनों को दर्शाता है। इसमें सीखने की क्षमता, स्मृति, प्रेरणा, और व्यक्तित्व में होने वाले बदलाव शामिल हैं। कुछ मानसिक कार्य आयु के साथ धीमे हो सकते हैं, जबकि अनुभव-आधारित ज्ञान बढ़ सकता है।

सामाजिक वृद्धता (Social Aging)

यह व्यक्ति की सामाजिक भूमिकाओं, संबंधों, और अपेक्षाओं में होने वाले परिवर्तनों को संदर्भित करता है। इसमें सेवानिवृत्ति, बच्चों का घर छोड़ना, दादा-दादी या नाना-नानी की भूमिका अपनाना, और समाज में वृद्ध व्यक्ति की स्थिति शामिल है। यह प्रकार संस्कृति और समाज के अनुसार भिन्न होता है।

ये तीनों प्रकार आपस में जुड़े हुए हैं और एक व्यक्ति के संपूर्ण वृद्धता अनुभव को निर्धारित करते हैं।

Mulsif Publication

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Contact:- tsfuml1202@gmail.com

IGNOU Solved Assignment / BHIC 112 Hindi / July 2025 and January 2026 Sessions


Bachelor's of Arts (History)

History Honours (BAHIH) & F.Y.U.P. Major (BAFHI)

BHIC 112

IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)

भारत का इतिहास-VII (c. 1605-1750)


सत्रीय कार्य - I


प्रश्न 1: सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के दौरान दक्षिण भारत में नायक राजनीति के उदय पर चर्चा कीजिए।

उत्तर:

सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जो विजयनगर साम्राज्य के पतन और नायक राज्यों (Nayaka Polity) के उदय से चिह्नित है। 'नायक' मूल रूप से विजयनगर साम्राज्य के अधीन सैन्य गवर्नर या सरदार थे, जिन्हें साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों (नायकतनों) का प्रशासन करने का अधिकार दिया गया था। वे राजा को सैन्य सहायता प्रदान करते थे और अपने क्षेत्र से राजस्व वसूलते थे।

उदय के कारण:

1. विजयनगर साम्राज्य का पतन: 1565 में तालिकोटा के युद्ध में विजयनगर साम्राज्य की विनाशकारी हार ने केंद्रीय सत्ता को अत्यधिक कमजोर कर दिया। इस शक्ति शून्य का लाभ उठाकर, प्रांतीय नायकों ने धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता का दावा करना शुरू कर दिया। वे पहले नाममात्र के लिए विजयनगर के शासकों के प्रति निष्ठा रखते थे, लेकिन व्यावहारिक रूप से वे स्वतंत्र शासक बन गए।

2. अमरम प्रणाली: विजयनगर की प्रशासनिक व्यवस्था में अमरम प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान था। इस प्रणाली के तहत, नायकों को सैन्य सेवा के बदले में भूमि (अमरम) दी जाती थी। इस भूमि से प्राप्त राजस्व का उपयोग उन्हें अपनी सेना के रखरखाव के लिए करना होता था। समय के साथ, इन नायकों ने इन क्षेत्रों में अपनी शक्ति को मजबूत कर लिया और यह पद वंशानुगत हो गया, जिससे उनकी स्वायत्तता और बढ़ गई।

प्रमुख नायक राज्य और उनकी विशेषताएँ:

दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली नायक राज्यों का उदय हुआ, जिनमें मदुरै, तंजौर (तंजावुर), और गिंगी (सेंजी) प्रमुख थे।

मदुरै के नायक: ये सबसे प्रसिद्ध नायकों में से थे। तिरुमल नायक (1623-1659) इस वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे, जिन्होंने मदुरै को अपनी राजधानी बनाया और कला एवं वास्तुकला को अत्यधिक संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में मदुरै का मीनाक्षी मंदिर भव्यता के शिखर पर पहुंचा। उन्होंने खुद को विजयनगर के नियंत्रण से पूरी तरह स्वतंत्र घोषित कर दिया।

तंजौर के नायक: तंजौर के नायकों ने भी कला और साहित्य को बहुत बढ़ावा दिया। उन्होंने तेलुगु साहित्य को विशेष संरक्षण दिया और कई मंदिरों और सार्वजनिक कार्यों का निर्माण कराया। उनकी राजधानी तंजौर शिक्षा और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई।

गिंगी के नायक: गिंगी के नायकों ने उत्तरी तमिलनाडु के क्षेत्रों पर शासन किया। उनका किला, जिसे "पूर्व का ट्रॉय" कहा जाता था, अपनी अभेद्यता के लिए प्रसिद्ध था। उन्होंने भी स्थानीय स्वायत्तता का प्रयोग किया और एक मजबूत सैन्य शक्ति बनाए रखी।

नायक राजनीति की प्रकृति:

नायक राजनीति मूल रूप से सैन्य-सामंती प्रकृति की थी। शासक अपनी शक्ति और वैधता के लिए अपनी सेना पर बहुत अधिक निर्भर थे। उन्होंने विजयनगर की प्रशासनिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जारी रखा, लेकिन साथ ही स्थानीय तत्वों को भी शामिल किया। उन्होंने दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली को संरक्षण दिया और बड़े-बड़े गोपुरमों और मंडपों का निर्माण कराया।

निष्कर्षतः, सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में नायक राजनीति का उदय विजयनगर साम्राज्य के विघटन का सीधा परिणाम था। इन राज्यों ने दक्षिण भारत में राजनीतिक अस्थिरता के दौर में एक महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन भूमिका निभाई और इस क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं कलात्मक विरासत को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।


प्रश्न 2: ज़ब्त प्रणाली पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर:

ज़ब्त प्रणाली (Zabt System) मुगल काल के दौरान, विशेष रूप से सम्राट अकबर के शासनकाल में स्थापित की गई भू-राजस्व निर्धारण की एक मानकीकृत और व्यवस्थित पद्धति थी। यह प्रणाली शेरशाह सूरी द्वारा शुरू किए गए सुधारों पर आधारित थी, लेकिन इसे अकबर के राजस्व मंत्री, राजा टोडरमल ने वैज्ञानिक और विस्तृत रूप देकर अंतिम रूप दिया। इसे 'टोडरमल का बंदोबस्त' भी कहा जाता है।

प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ:

1. भूमि की पैमाइश (Paimaish): इस प्रणाली का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम भूमि का सटीक सर्वेक्षण और माप था। भूमि को मापने के लिए लोहे के छल्लों से जुड़ी बांस की छड़ी, जिसे 'तनब' कहा जाता था, का उपयोग किया गया। इससे माप में सटीकता सुनिश्चित हुई, जो पहले रस्सी के उपयोग से संभव नहीं थी (रस्सी मौसम के अनुसार सिकुड़ती या फैलती थी)

2. भूमि का वर्गीकरण: मापी गई भूमि को उसकी उर्वरता और खेती की निरंतरता के आधार पर चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था:

पोलज: सबसे उपजाऊ भूमि जिस पर हर साल नियमित रूप से खेती होती थी।

परौती: वह भूमि जिसे अपनी उर्वरता वापस पाने के लिए एक या दो साल के लिए खाली छोड़ दिया जाता था।

चाचर: वह भूमि जिसे तीन से चार साल के लिए खाली छोड़ दिया जाता था।

बंजर: वह भूमि जिस पर पांच या अधिक वर्षों से खेती नहीं हुई हो।

3. राजस्व का निर्धारण (दहसाला प्रणाली): राजस्व निर्धारण का आधार 'दहसाला प्रणाली' थी, जिसे 1580 में लागू किया गया था। इसके तहत, प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न फसलों के लिए पिछले दस वर्षों (1570-1580) के औसत उत्पादन और औसत कीमतों का पता लगाया गया। इस औसत उपज का एक-तिहाई (1/3) हिस्सा भू-राजस्व के रूप में निर्धारित किया गया। यह निर्धारण नकद में किया जाता था, जिसे 'दस्तूर' कहा जाता था। इससे किसानों और राज्य दोनों के लिए राजस्व की राशि पहले से तय हो जाती थी, जिससे अनिश्चितता समाप्त हो गई।

क्रियान्वयन और प्रभाव:

ज़ब्त प्रणाली को लागू करने के लिए साम्राज्य को सूबों, सरकारों, परगनों और महलों में विभाजित किया गया था। करोरी नामक अधिकारियों को राजस्व एकत्र करने और रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए नियुक्त किया गया था। यह प्रणाली मुख्य रूप से साम्राज्य के मध्यवर्ती और स्थापित प्रांतों जैसे दिल्ली, आगरा, अवध, लाहौर और गुजरात में सफलतापूर्वक लागू की गई।

गुण और दोष:

गुण: इस प्रणाली ने राजस्व संग्रह में मनमानी को कम किया और राज्य के लिए एक स्थिर और नियमित आय सुनिश्चित की। किसानों को भी यह पता होता था कि उन्हें कितना कर देना है, जिससे वे स्थानीय अधिकारियों के शोषण से बचते थे।

दोष: यह प्रणाली काफी जटिल थी और इसे लागू करने के लिए एक कुशल और ईमानदार प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता थी। दूरदराज के या अशांत क्षेत्रों में इसे लागू करना मुश्किल था। इसके अलावा, निश्चित नकद भुगतान के कारण फसल खराब होने की स्थिति में किसानों पर भारी बोझ पड़ सकता था।

निष्कर्षतः, ज़ब्त प्रणाली मुगल प्रशासन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, जिसने भू-राजस्व व्यवस्था में एकरूपता और निष्पक्षता लाने का प्रयास किया। यह प्रणाली भारतीय इतिहास में भू-राजस्व प्रशासन का एक मील का पत्थर साबित हुई और इसने भविष्य की प्रणालियों के लिए एक आधार प्रदान किया।


सत्रीय कार्य - II


प्रश्न 3: भारत में मुगल आगमन की पूर्व संध्या पर फारसी भाषा और साहित्य के विकास पर चर्चा कीजिए।

उत्तर:

भारत में मुगलों के आगमन से पहले, विशेष रूप से दिल्ली सल्तनत (1206-1526) के दौरान, फारसी भाषा और साहित्य ने अपनी जड़ें गहरी जमा ली थीं। फारसी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था और यह प्रशासन, न्याय और अभिजात वर्ग की संवाद भाषा थी। इस काल में भारत, ईरान और मध्य एशिया के विद्वानों और कवियों के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया था।

इस युग के सबसे महान कवि और विद्वान अमीर खुसरो (1253-1325) थे, जिन्हें 'तूती--हिन्द' (भारत का तोता) कहा जाता है। उन्होंने फारसी कविता में भारतीय विषयों, उपमाओं और मुहावरों का समावेश करके एक नई शैली का विकास किया, जिसे 'सबक--हिन्दी' (भारतीय शैली) के नाम से जाना जाता है। उनकी गजलें, मसनवी और ऐतिहासिक कृतियाँ आज भी प्रसिद्ध हैं।

फारसी का उपयोग केवल कविता तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इतिहास-लेखन (तवारीख) में भी इसका व्यापक रूप से प्रयोग किया गया। जियाउद्दीन बरनी द्वारा रचित 'तारीख--फिरोजशाही' और मिन्हाज-उस-सिराज की 'तबकात--नासिरी' सल्तनत काल के इतिहास को समझने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

सूफी संतों ने भी अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए फारसी का उपयोग किया, जिससे यह भाषा आम लोगों तक भी पहुँची। इस प्रकार, जब बाबर ने 1526 में भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी, तो उसे एक ऐसी भूमि विरासत में मिली जहाँ फारसी भाषा और साहित्य पहले से ही फल-फूल रहा था। मुगलों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया और इसे नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया।


प्रश्न 4: अकबर के शासनकाल के दौरान मुगल साम्राज्य के क्षेत्रीय विस्तार पर एक नोट लिखिए।

उत्तर:

अकबर (1556-1605) के शासनकाल को मुगल साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण और अभूतपूर्व क्षेत्रीय विस्तार के लिए जाना जाता है। उसने एक आक्रामक विस्तारवादी नीति अपनाई, जिसमें सैन्य विजय, कूटनीति और वैवाहिक गठबंधनों का चतुराई से उपयोग किया गया।

प्रमुख विजय अभियान:

1. उत्तरी भारत: 1556 में पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू को हराकर अकबर ने दिल्ली और आगरा पर अपना नियंत्रण मजबूत किया। इसके बाद, उसने मालवा, गोंडवाना (रानी दुर्गावती के खिलाफ), और चुनार के किलों पर विजय प्राप्त की।

2. राजपूताना: अकबर ने राजपूताना के प्रति एक दोहरी नीति अपनाई। उसने आमेर, बीकानेर और जैसलमेर जैसे कई राजपूत राज्यों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। जिन राज्यों ने अधीनता स्वीकार नहीं की, जैसे मेवाड़, उनके खिलाफ सैन्य अभियान चलाए गए। 1568 में चित्तौड़ और 1569 में रणथंभौर पर विजय उसकी प्रमुख सफलताएँ थीं।

3. पश्चिम और पूर्व: 1573 में गुजरात की विजय एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योंकि इससे मुगल साम्राज्य को समुद्री व्यापार के लिए बंदरगाह मिले। इसके बाद, उसने पूर्व में बिहार और बंगाल के समृद्ध प्रांतों को जीता, जिससे साम्राज्य की आय में भारी वृद्धि हुई।

4. उत्तर-पश्चिम सीमांत: साम्राज्य को सुरक्षित करने के लिए, अकबर ने उत्तर-पश्चिम में काबुल (1585), कश्मीर (1586), सिंध (1591) और बलूचिस्तान (1595) पर नियंत्रण स्थापित किया। 1595 में कंधार पर शांतिपूर्ण विजय ने मुगलों और फारसियों के बीच एक सुरक्षित सीमा बनाई।

5. दक्कन: अपने शासनकाल के अंत में, अकबर ने दक्कन की ओर ध्यान दिया और खानदेश पर कब्जा कर लिया तथा अहमदनगर और बीजापुर से कुछ क्षेत्रों को छीन लिया।

अकबर के शासनकाल के अंत तक, मुगल साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक और पश्चिम में कंधार से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल चुका था।


प्रश्न 5: मध्यकालीन दक्कन के गांवों की मुख्य विशेषताएं क्या थीं? चर्चा कीजिए।

उत्तर:

मध्यकालीन दक्कन के गाँव काफी हद तक आत्मनिर्भर, सामाजिक और आर्थिक इकाइयाँ थीं, जिनकी अपनी विशिष्ट प्रशासनिक संरचना थी। इनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं:

1. ग्राम प्रशासन: प्रत्येक गाँव का प्रशासन वंशानुगत अधिकारियों द्वारा चलाया जाता था। इनमें पाटिल (मुखिया) और कुलकर्णी (लेखाकार) सबसे महत्वपूर्ण थे। पाटिल गाँव में कानून-व्यवस्था बनाए रखने और भू-राजस्व एकत्र करने के लिए जिम्मेदार था, जबकि कुलकर्णी भूमि और राजस्व का रिकॉर्ड रखता था। इन अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में कर-मुक्त भूमि दी जाती थी, जिसे 'वतन' कहा जाता था।

2. बलूता प्रणाली: दक्कन के गाँवों की अर्थव्यवस्था की एक अनूठी विशेषता बलूता प्रणाली थी। यह एक प्रकार की वस्तु-विनिमय प्रणाली थी जिसमें गाँव के कारीगर और सेवा प्रदाता (जैसे बढ़ई, लोहार, कुम्हार, नाई, धोबी), जिन्हें 'बलूतेदार' कहा जाता था, किसानों को अपनी सेवाएँ प्रदान करते थे। इसके बदले में, फसल कटाई के समय उन्हें किसानों की उपज का एक निश्चित हिस्सा मिलता था। इस प्रणाली ने गाँव की आत्मनिर्भरता को मजबूत किया और समुदाय के भीतर एक एकीकृत आर्थिक संबंध बनाया।

3. सामाजिक संरचना: गाँव का समाज जाति-आधारित था और विभिन्न जातियों के लोग अपने पारंपरिक व्यवसायों का पालन करते थे। ग्राम समुदाय सामूहिक रूप से तालाबों, चरागाहों और जंगलों जैसे सामान्य संसाधनों का प्रबंधन करता था। ग्राम पंचायतें स्थानीय विवादों को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।

संक्षेप में, दक्कन के गाँव एक सुव्यवस्थित वंशानुगत अधिकारी तंत्र और बलूता प्रणाली पर आधारित आत्मनिर्भर इकाइयाँ थीं, जो उन्हें एक विशिष्ट सामाजिक और आर्थिक चरित्र प्रदान करती थीं।


सत्रीय कार्य - III


प्रश्न 6: अबुल फ़ज़्ल

उत्तर:

अबुल फ़ज़्ल सम्राट अकबर के दरबार के एक प्रमुख विद्वान, इतिहासकार और सलाहकार थे। वह अकबर के 'नवरत्नों' में से एक थे। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति 'अकबरनामा' है, जो अकबर के शासनकाल का एक विस्तृत और आधिकारिक इतिहास है। इसका तीसरा भाग, जिसे 'आइन--अकबरी' कहा जाता है, मुगल साम्राज्य के प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था का एक अनमोल दस्तावेज़ है। अबुल फ़ज़्ल अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति 'सुलह--कुल' (सार्वभौमिक शांति) के प्रबल समर्थक थे। 1602 में शहजादा सलीम (जहाँगीर) के इशारे पर उनकी हत्या कर दी गई थी।


प्रश्न 7: असम बुरूंजी

उत्तर:

बुरूंजी, असम के अहोम साम्राज्य के ऐतिहासिक वृत्तांत या इतिवृत्त हैं। ये गद्य में लिखे गए हैं और अहोमों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का विस्तृत विवरण प्रदान करते हैं। प्रारंभ में ये अहोम भाषा में लिखे गए थे, लेकिन बाद में इनका असमिया भाषा में भी लेखन हुआ। बुरूंजी में राजाओं की वंशावली, युद्धों, प्रशासनिक निर्णयों और महत्वपूर्ण घटनाओं का कालानुक्रमिक वर्णन मिलता है। ये मध्यकालीन पूर्वोत्तर भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए सबसे महत्वपूर्ण और अद्वितीय स्वदेशी स्रोत माने जाते हैं, जो इस क्षेत्र की समृद्ध इतिहास-लेखन परंपरा को दर्शाते हैं।


प्रश्न 8: दूसरा अफ़गान साम्राज्य

उत्तर:

"दूसरा अफ़गान साम्राज्य" का संदर्भ सूर साम्राज्य (1540-1555) से है, जिसकी स्थापना शेरशाह सूरी ने की थी। 1540 में कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध में मुगल सम्राट हुमायूँ को हराने के बाद शेरशाह ने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया। यद्यपि यह साम्राज्य केवल 15 वर्षों तक चला, लेकिन यह अपने प्रशासनिक और राजस्व सुधारों के लिए विख्यात है। शेरशाह ने एक मजबूत केंद्रीयकृत शासन, मुद्रा प्रणाली (चाँदी का 'रुपया'), और ग्रैंड ट्रंक रोड जैसी सड़कों का निर्माण कराया। 1555 में हुमायूँ ने पुनः दिल्ली पर अधिकार कर इस साम्राज्य का अंत कर दिया।


प्रश्न 9: खंडीय राज्य सिद्धांत

उत्तर:

खंडीय राज्य (Segmentary State) सिद्धांत एक राजनीतिक मॉडल है जिसे इतिहासकार बर्टन स्टाइन ने मध्यकालीन दक्षिण भारतीय राज्यों, विशेष रूप से चोल साम्राज्य, की प्रकृति का वर्णन करने के लिए प्रतिपादित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार, राजा का वास्तविक राजनीतिक नियंत्रण केवल राज्य के केंद्रीय क्षेत्र पर होता था। परिधीय क्षेत्रों या 'खंडों' (segments) में, स्थानीय सरदार और सभाएँ काफी स्वायत्त थीं। ये खंड राजा की अनुष्ठानिक संप्रभुता को तो स्वीकार करते थे, लेकिन अपने आंतरिक मामलों में स्वतंत्र रूप से कार्य करते थे। यह सिद्धांत एक अत्यधिक केंद्रीकृत, नौकरशाही साम्राज्य के विचार को चुनौती देता है।


प्रश्न 10: ज़मींदारी अधिकार

उत्तर:

मुगल काल में ज़मींदारी अधिकार किसी व्यक्ति या परिवार के भूमि पर वंशानुगत दावों को संदर्भित करते थे। ज़मींदार भूमि का मालिक नहीं होता था, बल्कि उसे अपने क्षेत्र के किसानों से भू-राजस्व वसूलने का अधिकार प्राप्त था। इस सेवा के बदले में, उसे एकत्रित राजस्व का एक हिस्सा (लगभग 10%, जिसे 'नानकार' कहा जाता था) मिलता था या उसे कर-मुक्त भूमि (खुद्काश्त) पर खेती करने का अधिकार होता था। ये अधिकार वंशानुगत होते थे और इन्हें खरीदा या बेचा भी जा सकता था। ज़मींदार राज्य और किसानों के बीच एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे।

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