

Bachelor's of Arts
BPCG 175
IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)
जीवन यापन के लिये मनोविज्ञान
सत्रीय कार्य – I
प्रश्न
1. आत्म और पहचान पर पालन-पोषण शैलियों और सामाजिक-संरचनात्मक प्रभाव की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
आत्म
(Self) और पहचान (Identity) दो महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक अवधारणाएं हैं जो किसी व्यक्ति
के अस्तित्व के केंद्र में होती हैं। 'आत्म' व्यक्ति की अपनी क्षमताओं, गुणों और अस्तित्व
की व्यक्तिगत धारणा को संदर्भित करता है, जबकि 'पहचान' में वे सामाजिक भूमिकाएँ, समूह
सदस्यता और व्यक्तिगत अर्थ शामिल होते हैं जो व्यक्ति को परिभाषित करते हैं। इन दोनों
का विकास एक जटिल प्रक्रिया है जो कई कारकों से प्रभावित होती है, जिनमें पालन-पोषण
की शैलियाँ और सामाजिक-संरचनात्मक प्रभाव प्रमुख हैं।
पालन-पोषण
शैलियों का प्रभाव
डायना
बॉमरिंड द्वारा पहचानी गई चार मुख्य पालन-पोषण शैलियाँ बच्चे के आत्म-सम्मान और पहचान
निर्माण पर गहरा प्रभाव डालती हैं:
1.
आधिकारिक (Authoritative) शैली:
इस शैली में माता-पिता बच्चों से उच्च उम्मीदें रखते हैं, लेकिन साथ ही वे स्नेही,
सहायक और संवाद के लिए खुले होते हैं। वे नियम बनाते हैं लेकिन उनके पीछे के कारणों
को भी समझाते हैं। इस माहौल में पले-बढ़े बच्चों में आमतौर पर उच्च आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता
और एक सकारात्मक आत्म-अवधारणा विकसित होती है। वे अपनी पहचान को आत्मविश्वास के साथ
खोजते हैं और सामाजिक रूप से सक्षम होते हैं।
2.
सत्तावादी (Authoritarian) शैली:
इसमें माता-पिता बहुत सख्त होते हैं और बिना किसी बातचीत के नियमों का पालन करने की
मांग करते हैं। वे स्नेह कम दिखाते हैं और सजा पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे
वातावरण में बच्चे अक्सर आज्ञाकारी तो होते हैं, लेकिन उनमें आत्म-सम्मान की कमी, निर्णय
लेने में कठिनाई और विद्रोह की भावना विकसित हो सकती है। उनकी पहचान अक्सर दूसरों की
अपेक्षाओं से दब जाती है।
3.
अनुमोदक (Permissive) शैली:
इस शैली के माता-पिता बहुत स्नेही होते हैं लेकिन नियम और सीमाएँ बहुत कम निर्धारित
करते हैं। वे बच्चों की हर मांग पूरी करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, बच्चों में आत्म-नियंत्रण
की कमी हो सकती है और वे आत्मकेंद्रित हो सकते हैं। उन्हें अपनी पहचान को संरचित करने
में कठिनाई होती है क्योंकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन और अनुशासन नहीं मिलता।
4.
असम्मिलित (Neglectful) शैली:
इस शैली में माता-पिता न तो कोई मांग करते हैं और न ही कोई स्नेह दिखाते हैं। वे अपने
बच्चों की भावनात्मक या शारीरिक जरूरतों को पूरा नहीं करते। यह सबसे हानिकारक शैली
है, जिससे बच्चों में बहुत कम आत्म-सम्मान, सामाजिक कौशल की कमी और अपनी पहचान के प्रति
उदासीनता विकसित होती है।
सामाजिक-संरचनात्मक
प्रभाव
व्यक्ति
का आत्म और पहचान केवल पारिवारिक दायरे में ही नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक
ढांचे के भीतर भी आकार लेते हैं:
•
संस्कृति: व्यक्तिवादी संस्कृतियाँ
(जैसे पश्चिमी देश) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और विशिष्टता पर जोर देती हैं,
जिससे एक स्वतंत्र 'आत्म' का निर्माण होता है। इसके विपरीत, सामूहिकतावादी संस्कृतियाँ
(जैसे कई एशियाई देश) समूह के सामंजस्य, सामाजिक दायित्वों और अंतर्संबंधों पर जोर
देती हैं, जिससे एक परस्पर निर्भर 'आत्म' का विकास होता है।
•
सामाजिक वर्ग: आर्थिक स्थिति
और सामाजिक वर्ग व्यक्ति को उपलब्ध अवसरों, शिक्षा और संसाधनों को प्रभावित करते हैं,
जो सीधे तौर पर उसकी आकांक्षाओं, आत्म-मूल्य और पहचान को आकार देते हैं।
•
लिंग भूमिकाएं: समाज पुरुषों
और महिलाओं के लिए कुछ व्यवहार, भूमिकाएँ और अपेक्षाएँ निर्धारित करता है। ये लैंगिक
रूढ़िवादिताएं बचपन से ही व्यक्ति की पहचान और आत्म-अवधारणा को प्रभावित करती हैं कि
उन्हें कैसा सोचना, महसूस करना और व्यवहार करना चाहिए।
•
मीडिया और प्रौद्योगिकी:
आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया और मास मीडिया पहचान निर्माण में एक शक्तिशाली भूमिका
निभाते हैं। वे सौंदर्य, सफलता और जीवन शैली के मानक प्रस्तुत करते हैं जो विशेष रूप
से किशोरों के आत्म-सम्मान और पहचान की खोज को प्रभावित कर सकते हैं।
निष्कर्षतः, आत्म और पहचान का विकास एक गतिशील प्रक्रिया
है जो पालन-पोषण जैसी निकटतम अंतःक्रियाओं और संस्कृति एवं समाज जैसे व्यापक संरचनात्मक
प्रभावों के बीच निरंतर संवाद का परिणाम है। एक सकारात्मक और स्वस्थ पहचान के निर्माण
के लिए एक सहायक पारिवारिक वातावरण और एक समावेशी सामाजिक संरचना दोनों ही आवश्यक हैं।
प्रश्न
2. व्यक्तित्व के विभिन्न सिद्धांत पर चर्चा कीजिए। व्यक्तित्व पर भारतीय परिप्रेक्ष्य
को भी दर्शाइए।
उत्तर:
व्यक्तित्व
(Personality) उन विशिष्ट विचारों, भावनाओं और व्यवहारों के पैटर्न को संदर्भित करता
है जो एक व्यक्ति को दूसरे से अलग करते हैं और जो समय और परिस्थितियों के अनुसार अपेक्षाकृत
स्थिर रहते हैं। मनोविज्ञान में व्यक्तित्व को समझने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए
गए हैं।
व्यक्तित्व
के प्रमुख सिद्धांत
1.
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत (Psychoanalytic Theory): सिगमंड फ्रायड द्वारा प्रस्तावित यह सिद्धांत
मानता है कि व्यक्तित्व तीन मुख्य घटकों - इड (Id), ईगो (Ego), और सुपरईगो
(Superego) - के बीच संघर्ष का परिणाम है। फ्रायड ने अचेतन मन, बचपन के अनुभवों और
यौन इच्छाओं की भूमिका पर जोर दिया। उनके अनुसार, व्यक्तित्व मनोलैंगिक विकास के विभिन्न
चरणों (मौखिक, गुदा, लैंगिक आदि) से होकर विकसित होता है।
2.
विशेषक सिद्धांत (Trait Theory):
यह सिद्धांत व्यक्तित्व को स्थिर और स्थायी गुणों या 'विशेषकों' (Traits) के एक सेट
के रूप में देखता है। गॉर्डन ऑलपोर्ट, रेमंड कैटेल और हैंस आइसेनक जैसे मनोवैज्ञानिकों
ने मुख्य विशेषकों की पहचान करने का प्रयास किया। इसका सबसे प्रसिद्ध मॉडल 'बिग फाइव'
(Big Five) है, जिसमें व्यक्तित्व के पांच मुख्य आयाम शामिल हैं: अनुभव के प्रति खुलापन
(Openness), कर्तव्यनिष्ठा (Conscientiousness), बहिर्मुखता (Extraversion), सहमति
(Agreeableness), और मनोविक्षुब्धता (Neuroticism)।
3.
मानवतावादी सिद्धांत (Humanistic Theory): कार्ल रोजर्स और अब्राहम मास्लो जैसे सिद्धांतकारों ने व्यक्तित्व
के सकारात्मक पहलुओं, स्वतंत्र इच्छा और व्यक्तिगत विकास पर ध्यान केंद्रित किया। मास्लो
ने 'आवश्यकता पदानुक्रम' (Hierarchy of Needs) का प्रस्ताव दिया, जिसमें आत्म-सिद्धि
(Self-actualization) को सर्वोच्च लक्ष्य माना गया। रोजर्स ने 'आत्म-अवधारणा'
(Self-concept) और 'बिना शर्त सकारात्मक सम्मान' (Unconditional Positive Regard) के
महत्व पर जोर दिया।
4.
सामाजिक-संज्ञानात्मक सिद्धांत (Social-Cognitive Theory): अल्बर्ट बंडुरा जैसे मनोवैज्ञानिकों का तर्क
है कि व्यक्तित्व केवल आंतरिक बलों या बाहरी उत्तेजनाओं का परिणाम नहीं है, बल्कि यह
अवलोकन, सीखने, सोचने और सामाजिक वातावरण के साथ पारस्परिक संपर्क का परिणाम है। बंडुरा
ने 'पारस्परिक नियतिवाद' (Reciprocal Determinism) की अवधारणा दी, जिसमें व्यक्ति,
व्यवहार और पर्यावरण एक-दूसरे को लगातार प्रभावित करते हैं।
व्यक्तित्व
पर भारतीय परिप्रेक्ष्य
भारतीय
दर्शन में व्यक्तित्व की अवधारणा पश्चिमी सिद्धांतों से भिन्न और अधिक आध्यात्मिक है।
यह मुख्य रूप से सांख्य दर्शन और वेदों पर आधारित है।
•
त्रिगुण सिद्धांत: भगवद्गीता
और सांख्य दर्शन के अनुसार, प्रकृति (भौतिक दुनिया) तीन मौलिक गुणों या 'गुणों' से
बनी है, और ये गुण मानव व्यक्तित्व को भी नियंत्रित करते हैं। ये तीन गुण हैं:
•
सत्व (Sattva): यह गुण पवित्रता,
ज्ञान, सद्भाव, शांति और खुशी से जुड़ा है। एक सात्विक व्यक्ति शांत, ज्ञानी, दयालु
और आध्यात्मिक होता है।
•
रजस (Rajas): यह गुण गतिविधि,
जुनून, इच्छा, महत्वाकांक्षा और बेचैनी से जुड़ा है। एक राजसिक व्यक्ति कर्मठ, प्रतिस्पर्धी
और भौतिकवादी सुखों के प्रति आकर्षित होता है।
•
तमस (Tamas): यह गुण अंधकार,
अज्ञान, जड़ता, आलस्य और विनाश से जुड़ा है। एक तामसिक व्यक्ति आलसी, भ्रमित और नकारात्मक
प्रवृत्तियों वाला होता है।
भारतीय
परिप्रेक्ष्य के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं, लेकिन
किसी एक गुण की प्रधानता उसके व्यक्तित्व को निर्धारित करती है। लक्ष्य इन गुणों से
परे जाकर संतुलन और मोक्ष प्राप्त करना है।
•
पंचकोश सिद्धांत: तैत्तिरीय
उपनिषद में वर्णित यह सिद्धांत बताता है कि मानव अस्तित्व पांच परतों या 'कोशों' से
बना है। ये कोश व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं, अन्नमय कोश
(भौतिक शरीर) से लेकर आनंदमय कोश (आनंदमय आत्म) तक। एक स्वस्थ व्यक्तित्व इन सभी कोशों
के बीच सामंजस्य स्थापित करने से बनता है।
निष्कर्षतः, जहाँ पश्चिमी सिद्धांत व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक
और सामाजिक कारकों के संदर्भ में समझाते हैं, वहीं भारतीय परिप्रेक्ष्य इसे एक गहरे
आध्यात्मिक और नैतिक ढांचे के भीतर देखता है, जिसका अंतिम लक्ष्य आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार
है।
सत्रीय कार्य – II
प्रश्न
3. निर्णयन की प्रकृति और चरणों का वर्णन कीजिए। प्रभावी निर्णयन की रणनीतियों की व्याख्या
कीजिए।
उत्तर:
निर्णयन
(Decision-making) एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसमें उपलब्ध विकल्पों में से किसी
एक का चयन किया जाता है। यह व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है।
इसकी प्रकृति लक्ष्य-उन्मुख होती है, जिसका उद्देश्य किसी समस्या को हल करना या किसी
अवसर का लाभ उठाना होता है। निर्णयन में तर्क, अंतर्ज्ञान और अनुभव सभी शामिल हो सकते
हैं।
निर्णयन
के चरण:
एक
व्यवस्थित निर्णयन प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शामिल होते हैं:
1.
समस्या की पहचान: सबसे पहले यह स्पष्ट रूप से परिभाषित करना आवश्यक है कि निर्णय
किस बारे में लेना है।
2.
सूचना एकत्र करना: समस्या से संबंधित प्रासंगिक जानकारी और डेटा इकट्ठा करना।
3.
विकल्पों की पहचान: समस्या के समाधान के लिए संभावित विकल्पों की एक सूची बनाना।
4.
विकल्पों का मूल्यांकन: प्रत्येक विकल्प के फायदे, नुकसान, लागत और परिणामों का विश्लेषण
करना।
5.
सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन: मूल्यांकन के आधार पर सबसे उपयुक्त विकल्प को चुनना।
6.
निर्णय का कार्यान्वयन: चुने हुए विकल्प को कार्य रूप में परिणत करना।
7.
परिणामों की समीक्षा: निर्णय के परिणामों का मूल्यांकन करना और यह देखना कि क्या समस्या
का समाधान हुआ।
प्रभावी
निर्णयन की रणनीतियाँ:
1.
लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-Benefit Analysis): प्रत्येक विकल्प से जुड़े संभावित लाभों
और लागतों की तुलना करना।
2.
पक्ष-विपक्ष सूची बनाना: किसी विकल्प के पक्ष और विपक्ष में तर्कों को सूचीबद्ध करना।
3.
समूह चर्चा (Brainstorming): दूसरों के साथ विचार-विमर्श करके नए और विविध विकल्प खोजना।
4.
संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों से बचना: पुष्टि पूर्वाग्रह (Confirmation Bias) जैसी मानसिक
त्रुटियों के प्रति सचेत रहना, जो हमारे निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं।
5.
दीर्घकालिक सोच: तात्कालिक लाभ के बजाय निर्णय के दीर्घकालिक परिणामों पर विचार करना।
एक
प्रभावी निर्णयकर्ता इन चरणों और रणनीतियों का उपयोग करके अधिक तार्किक और सफल निर्णय
ले सकता है।
प्रश्न
4. भावदशा विकार के प्रकारों का वर्णन कीजिए। भावदशा विकार के कारण संबंधी कारकों और
उपचार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भावदशा
विकार (Mood Disorders), जिन्हें भावात्मक विकार भी कहा जाता है, मानसिक स्वास्थ्य
स्थितियों का एक समूह है जिसमें व्यक्ति की भावनात्मक स्थिति या मनोदशा में गंभीर और
लगातार गड़बड़ी होती है। यह व्यक्ति के दैनिक जीवन, काम और रिश्तों को नकारात्मक रूप
से प्रभावित करता है।
भावदशा
विकार के प्रकार:
1.
प्रमुख अवसादग्रस्तता विकार (Major Depressive Disorder): इसमें कम से कम दो सप्ताह तक लगातार उदासी,
निराशा और गतिविधियों में रुचि की कमी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं।
2.
द्विध्रुवी विकार (Bipolar Disorder):
इसमें व्यक्ति की मनोदशा अवसाद (Depression) के दौरों और उन्माद (Mania) या अल्पोन्माद
(Hypomania) के दौरों के बीच बदलती रहती है। उन्माद के दौरान व्यक्ति अत्यधिक ऊर्जावान,
उत्साहित और अविवेकी हो सकता है।
3.
डिस्टीमिया (Dysthymia):
यह एक हल्का लेकिन दीर्घकालिक (कम से कम दो साल तक चलने वाला) अवसाद है।
4.
साइक्लोथाइमिक विकार (Cyclothymic Disorder): इसमें हल्के अवसाद और अल्पोन्माद के कई दौर होते हैं जो कम से
कम दो साल तक चलते हैं।
कारण
संबंधी कारक (Etiology):
भावदशा
विकारों का कोई एक कारण नहीं होता, बल्कि यह कई कारकों का परिणाम है:
•
जैविक कारक: आनुवंशिकी
(परिवार में इतिहास), मस्तिष्क की संरचना और न्यूरोट्रांसमीटर (जैसे सेरोटोनिन और डोपामाइन)
के स्तर में असंतुलन।
•
मनोवैज्ञानिक कारक: नकारात्मक
सोच पैटर्न, कम आत्म-सम्मान, तनाव और आघात (Trauma)।
•
सामाजिक और पर्यावरणीय कारक:
जीवन की तनावपूर्ण घटनाएं जैसे किसी प्रियजन की मृत्यु, नौकरी छूटना, या रिश्ते में
समस्याएं।
उपचार:
उपचार
का उद्देश्य लक्षणों को प्रबंधित करना और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है। मुख्य
उपचार विधियाँ हैं:
1.
मनोचिकित्सा (Psychotherapy):
संज्ञानात्मक-व्यवहार थेरेपी (CBT) और अंतर्वैयक्तिक थेरेपी (IPT) जैसी थेरेपी व्यक्ति
को नकारात्मक विचार पैटर्न को पहचानने और बदलने में मदद करती हैं।
2.
औषधि (Pharmacotherapy):
एंटीडिप्रेसेंट (अवसाद के लिए) और मूड स्टेबलाइजर्स (द्विध्रुवी विकार के लिए) जैसी
दवाएं मस्तिष्क में रासायनिक संतुलन को ठीक करने में मदद करती हैं।
आमतौर
पर, सर्वोत्तम परिणामों के लिए मनोचिकित्सा और दवाओं का संयोजन उपयोग किया जाता है।
प्रश्न
5. संवेगों का अर्थ और महत्व की व्याख्या कीजिए। सांवेगिक बुद्धि के संप्रत्यय पर चर्चा
कीजिए।
उत्तर:
संवेग
(Emotion) एक जटिल मनोवैज्ञानिक अवस्था है जिसमें व्यक्तिपरक अनुभव, शारीरिक प्रतिक्रियाएं
(जैसे हृदय गति का बढ़ना) और अभिव्यंजक व्यवहार (जैसे मुस्कुराहट या रोना) शामिल होते
हैं। यह किसी आंतरिक या बाहरी घटना की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। संवेग
तीव्र और अल्पकालिक होते हैं।
संवेगों
का महत्व:
संवेग
केवल भावनाएं नहीं हैं, बल्कि वे हमारे जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं:
1.
उत्तरजीविता (Survival): भय जैसे संवेग हमें खतरे से बचने के लिए प्रेरित करते हैं।
2.
संचार (Communication): संवेग हमें अपनी भावनाओं और जरूरतों को दूसरों तक पहुंचाने
में मदद करते हैं, जिससे सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं।
3.
निर्णयन (Decision-making): हमारी भावनाएं हमारे निर्णयों को प्रभावित करती हैं और
हमें बेहतर विकल्प चुनने में मार्गदर्शन कर सकती हैं।
4.
प्रेरणा (Motivation): खुशी और रुचि जैसे संवेग हमें लक्ष्यों की ओर बढ़ने और नई चीजों
को आज़माने के लिए प्रेरित करते हैं।
सांवेगिक
बुद्धि (Emotional Intelligence - EI):
सांवेगिक
बुद्धि का संप्रत्यय डैनियल गोलमैन द्वारा लोकप्रिय किया गया। यह अपनी और दूसरों की
भावनाओं को समझने, पहचानने, प्रबंधित करने और प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता
है। यह केवल भावनाओं पर नियंत्रण रखना नहीं है, बल्कि उन्हें बुद्धिमानी से समझना और
व्यक्त करना है।
सांवेगिक
बुद्धि के पांच मुख्य घटक हैं:
1.
आत्म-जागरूकता (Self-Awareness): अपनी भावनाओं और उनके प्रभाव को पहचानना।
2.
आत्म-नियमन (Self-Regulation): अपनी विघटनकारी भावनाओं और आवेगों को नियंत्रित करना।
3.
प्रेरणा (Motivation): आंतरिक कारणों से लक्ष्यों की ओर काम करना।
4.
समानुभूति (Empathy): दूसरों की भावनाओं को समझना और महसूस करना।
5.
सामाजिक कौशल (Social Skills): रिश्तों को प्रबंधित करना और नेटवर्क बनाना।
सांवेगिक
बुद्धि व्यक्तिगत और व्यावसायिक सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बेहतर
संचार, मजबूत रिश्तों और प्रभावी नेतृत्व का आधार बनती है।
सत्रीय कार्य – III
6.
उत्तर:
परोप्रियम (Proprium) अमेरिकी मनोवैज्ञानिक गॉर्डन डब्ल्यू. ऑलपोर्ट द्वारा प्रस्तुत व्यक्तित्व (Personality) के सिद्धांत का एक केंद्रीय विचार है।
परोप्रियम पर टिप्पणी
परोप्रियम शब्द का अर्थ है 'स्व' (Self) का वह केंद्रीय और एकीकृत भाग जो व्यक्ति को निरंतरता, विशिष्टता और एकता प्रदान करता है। ऑलपोर्ट ने 'स्व' या 'अहं' (Ego) जैसे पारंपरिक शब्दों के बजाय 'परोप्रियम' का उपयोग किया, क्योंकि वह चाहते थे कि यह व्यक्ति के आंतरिक और अद्वितीय स्वरूप को दर्शाए।
यह कोई जन्मजात संरचना नहीं है, बल्कि जीवन भर चरणों में विकसित होता है। इसमें सात प्रमुख कार्य शामिल हैं, जैसे:
* दैहिक स्व (Bodily Self)
* आत्म-पहचान (Self-Identity)
* आत्म-सम्मान (Self-Esteem)
* आत्म-विस्तार (Self-Extension)
* आत्म-छवि (Self-Image)
* विवेकपूर्ण मुकाबला (Rational Coping)
* स्वामित्वपूर्ण प्रयास (Propriate Striving)
स्वामित्वपूर्ण प्रयास परोप्रियम का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण चरण है, जो व्यक्ति को लक्ष्यों और मूल्यों की ओर प्रेरित करता है, जिससे वह अपने जीवन को अर्थ और दिशा प्रदान कर सके। यह व्यक्तित्व के गतिशील और विकसित होते स्वरूप को दर्शाता है।
7.
संवेग, मनोदशा और भावनाएं
उत्तर:
संवेग
(Emotion), मनोदशा (Mood) और भावनाएं (Feelings) अक्सर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग
किए जाते हैं, लेकिन इनमें सूक्ष्म अंतर हैं। संवेग एक विशिष्ट घटना या उत्तेजना के
प्रति एक तीव्र, अल्पकालिक प्रतिक्रिया है (जैसे, खतरे को देखकर डर)। मनोदशा एक अधिक
व्यापक, कम तीव्र और लंबे समय तक चलने वाली भावनात्मक स्थिति है जिसका कोई स्पष्ट कारण
नहीं हो सकता है (जैसे, घंटों तक उदास महसूस करना)। भावनाएं संवेग का व्यक्तिपरक अनुभव
हैं; यह वह है जिसे हम सचेत रूप से महसूस करते हैं। संक्षेप में, संवेग एक तीव्र प्रतिक्रिया
है, मनोदशा एक स्थायी स्थिति है, और भावना उसका सचेत अनुभव है।
8. तनाव कारक प्रकार
उत्तर:
तनाव कारक (Stressors) वे बाहरी या आंतरिक तत्व होते हैं जो व्यक्ति में मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक दबाव उत्पन्न करते हैं। इनका मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं— शारीरिक, मानसिक और सामाजिक।
शारीरिक तनाव कारक में बीमारी, थकान या चोट शामिल होती है।
मानसिक तनाव कारक जैसे चिंता, भय, असफलता या अत्यधिक कार्यभार व्यक्ति की मानसिक शांति को प्रभावित करते हैं।
सामाजिक तनाव कारक में पारिवारिक विवाद, आर्थिक कठिनाइयाँ या समाजिक दबाव प्रमुख हैं।
इन तनाव कारकों का उचित प्रबंधन आवश्यक है, क्योंकि दीर्घकालिक तनाव व्यक्ति के स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।
9.
ब्रोंफेनब्रेनर का परिस्थितिकीय तंत्र सिद्धांत
उत्तर:
यूरी
ब्रोंफेनब्रेनर का परिस्थितिकीय तंत्र सिद्धांत (Ecological Systems Theory) यह प्रस्तावित
करता है कि मानव विकास को केवल तत्काल वातावरण के संदर्भ में नहीं समझा जा सकता, बल्कि
यह विभिन्न पर्यावरणीय प्रणालियों के साथ जटिल अंतःक्रिया का परिणाम है। इस सिद्धांत
में पांच स्तर शामिल हैं:
1.
माइक्रोसिस्टम (Microsystem): तत्काल वातावरण (परिवार, स्कूल)।
2.
मेसोसिस्टम (Mesosystem): माइक्रोसिस्टम के बीच संबंध (जैसे, माता-पिता और शिक्षक के
बीच बातचीत)।
3.
एक्सोसिस्टम (Exosystem): अप्रत्यक्ष वातावरण (जैसे, माता-पिता का कार्यस्थल)।
4.
मैक्रोसिस्टम (Macrosystem): सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक मान्यताएं।
5.
क्रोनोसिस्टम (Chronosystem): जीवनकाल में होने वाले परिवर्तन और ऐतिहासिक घटनाएं।
10.
वृद्धता के प्रकार
उत्तर:
वृद्धता
(Aging) एक जटिल प्रक्रिया है जिसे मुख्य रूप से तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता
है: जैविक वृद्धता, मनोवैज्ञानिक वृद्धता, और सामाजिक वृद्धता।
वृद्धता
के प्रकार (Types of Aging)
जैविक
वृद्धता (Biological Aging)
यह
शरीर में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से संबंधित है, जैसे कोशिकाओं और ऊतकों का क्षरण,
अंगों की कार्यक्षमता में कमी, और बीमारी के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता। यह समय के साथ
सभी जीवों में होने वाली अनिवार्य प्रक्रिया है।
मनोवैज्ञानिक
वृद्धता (Psychological Aging)
यह
संज्ञानात्मक (cognitive) और भावनात्मक (emotional) परिवर्तनों को दर्शाता है। इसमें
सीखने की क्षमता, स्मृति, प्रेरणा, और व्यक्तित्व में होने वाले बदलाव शामिल हैं। कुछ
मानसिक कार्य आयु के साथ धीमे हो सकते हैं, जबकि अनुभव-आधारित ज्ञान बढ़ सकता है।
सामाजिक
वृद्धता (Social Aging)
यह
व्यक्ति की सामाजिक भूमिकाओं, संबंधों, और अपेक्षाओं में होने वाले परिवर्तनों को संदर्भित
करता है। इसमें सेवानिवृत्ति, बच्चों का घर छोड़ना, दादा-दादी या नाना-नानी की भूमिका
अपनाना, और समाज में वृद्ध व्यक्ति की स्थिति शामिल है। यह प्रकार संस्कृति और समाज
के अनुसार भिन्न होता है।
ये
तीनों प्रकार आपस में जुड़े हुए हैं और एक व्यक्ति के संपूर्ण वृद्धता अनुभव को निर्धारित करते हैं।
Mulsif Publication
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