

Bachelor's of Arts (History)
History Honours (BAHIH) & F.Y.U.P. Major (BAFHI)
BHIC 101
IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)
भारत का इतिहास-I
सत्रीय कार्य-I
1) उत्तर भारत की प्रमुख लौह युगीन संस्कृति की चर्चा कीजिए।
उत्तर: भारत में लौह युग का प्रारम्भ लगभग 1200 ईसा पूर्व से माना जाता है। उत्तर भारत में यह काल ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी समय यहाँ जनजीवन, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विकास में व्यापक परिवर्तन हुए। लौह धातु के प्रयोग ने कृषि, युद्ध तथा शिल्पकला को नई गति प्रदान की। उत्तर भारत में मुख्यतः पाँच प्रमुख लौह युगीन संस्कृतियाँ पहचानी गई हैं—पेंटेड ग्रे वेयर (PGW), नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर (NBPW), ब्लैक एंड रेड वेयर (BRW), लाल मृद्भांड संस्कृति तथा गंगा–यमुना दोआब की संस्कृतियाँ।
1. पेंटेड ग्रे वेयर (PGW) संस्कृति (1200–600
ईसा पूर्व):
यह संस्कृति गंगा–यमुना दोआब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक पाई गई है। इसके अंतर्गत पतले, हल्के भूरे रंग के बर्तनों पर काले रंग से ज्यामितीय रेखाएँ, वृत्त और चिह्न बनाए जाते थे। यह महाभारत कालीन सभ्यता से भी जुड़ी मानी जाती है। यहाँ लोग कृषि करते थे, लोहे के औजार और हथियार का प्रयोग होता था तथा छोटे-छोटे ग्राम आधारित नगर विकसित होने लगे थे।
2. नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर (NBPW) संस्कृति (700–200 ईसा पूर्व):
यह संस्कृति उत्तर भारत में नगरीकरण और राज्य निर्माण के साथ जुड़ी है। इसके बर्तन अत्यंत चमकीले, काले अथवा धूसर रंग के होते थे। इस काल में गंगा के मैदानी क्षेत्रों में नगरों का उदय हुआ, वाणिज्य और व्यापार फले-फूले तथा मुद्रा प्रचलन में आई। महाजनपदों का विकास भी इसी काल में हुआ।
3. ब्लैक एंड रेड वेयर (BRW) संस्कृति:
इसका प्रचलन मध्य गंगा घाटी, राजस्थान और मध्य भारत के क्षेत्रों में हुआ। बर्तनों के ऊपरी भाग पर काला और निचले भाग पर लाल रंग चढ़ा होता था। यह संस्कृति पेंटेड ग्रे वेयर और नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर दोनों से कहीं न कहीं जुड़ी हुई दिखाई देती है।
4. लाल मृद्भांड संस्कृति:
उत्तर भारत के अनेक भागों में साधारण लाल मिट्टी के बर्तन मिलते हैं, जिनमें कभी-कभी चित्रांकन भी मिलता है। इसका प्रयोग सामान्य जन–जीवन में व्यापक था और यह स्थानीय परंपरा की ओर संकेत करता है।
5. गंगा–यमुना दोआब की संस्कृति:
गंगा–यमुना क्षेत्र में लौह धातु का व्यापक प्रयोग कृषि विस्तार में हुआ। इसने जनसंख्या वृद्धि, स्थायी गाँव और नगरों के विकास को गति दी। यहाँ से प्राप्त लोहे के हल, हंसिया, कुल्हाड़ी और भाले इस युग के आर्थिक तथा सैनिक जीवन को दर्शाते हैं।
विशेषताएँ:
- कृषि के लिए लोहे के औजारों का व्यापक प्रयोग।
- नगरों का विकास और व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि।
- मिट्टी के विभिन्न प्रकार के बर्तनों की परंपरा, जो सामाजिक–सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती है।
- लौह युग ने उत्तर भारत को महाजनपदों और बाद में मौर्य साम्राज्य की नींव रखने योग्य बनाया।
निष्कर्ष:
उत्तर भारत की लौह युगीन संस्कृतियाँ भारतीय इतिहास में संक्रमण का युग प्रस्तुत करती हैं। इन संस्कृतियों ने ग्राम से नगर, जनजातीय संगठन से राज्य और धातुकर्म से व्यापारिक उन्नति तक की ऐतिहासिक यात्रा को संभव बनाया। वस्तुतः यही संस्कृतियाँ उत्तर भारत में ऐतिहासिक युग के उद्भव की आधारशिला सिद्ध हुईं।
2) बौद्ध धर्म की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर: बौद्ध धर्म विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है,
जिसकी स्थापना छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ गौतम) ने की थी। यह
धर्म केवल धार्मिक विश्वास का ही नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन और नैतिक आचरण का मार्ग
भी प्रस्तुत करता है। बौद्ध धर्म का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को दुःखों से मुक्ति दिलाना
और निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति कराना है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
1.
चार आर्य सत्य (Four Noble Truths)
बौद्ध
धर्म का मूल आधार चार आर्य सत्य हैं, जिन्हें बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद बताया।
- दुःख सत्य – संसार
दुःखमय है। जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु, वियोग और अपूर्ण इच्छाएँ सभी दुःख
हैं।
- दुःख समुदय सत्य
– इन दुःखों का कारण तृष्णा (इच्छा या लालच) है।
- दुःख निरोध सत्य
– तृष्णा का नाश करने से दुःखों का अंत संभव है।
- दुःख निरोधगामिनी
प्रतिपदा सत्य – दुःख के अंत का मार्ग अष्टांगिक मार्ग है।
2.
अष्टांगिक मार्ग (Eightfold Path)
बुद्ध
ने दुःखों से मुक्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग बताया, जो व्यक्ति को सही जीवन जीने की
दिशा देता है। यह आठ अंग हैं —
- सम्यक दृष्टि
(सही समझ)
- सम्यक संकल्प
(सही विचार)
- सम्यक वाक् (सही
वचन)
- सम्यक कर्मांत
(सही कर्म)
- सम्यक आजीविका
(सही आजीविका)
- सम्यक प्रयास
(सही प्रयास)
- सम्यक स्मृति
(सही स्मरण)
- सम्यक समाधि
(सही ध्यान)
यह मार्ग मध्यम मार्ग कहलाता है, क्योंकि यह न तो अत्यधिक भोग का समर्थन करता है, न कठोर तप का।
3.
अनित्य, अनात्मा और प्रतीत्यसमुत्पाद
बौद्ध
दर्शन के तीन प्रमुख सिद्धांत हैं—
- अनित्य
(Impermanence): संसार की हर वस्तु परिवर्तनशील है।
- अनात्मा
(No-Self): आत्मा जैसी कोई स्थायी सत्ता नहीं होती।
- प्रतीत्यसमुत्पाद
(Dependent Origination): प्रत्येक वस्तु किसी कारण से उत्पन्न होती है; जब कारण
समाप्त होते हैं, वस्तु भी समाप्त हो जाती है।
4.
अहिंसा और करुणा
बौद्ध
धर्म का आधार अहिंसा, दया, करुणा और प्रेम है। बुद्ध ने सभी जीवों के प्रति समानता
और सहानुभूति का संदेश दिया। उन्होंने जाति, पंथ या वर्ग के भेदभाव को अस्वीकार किया।
5.
संघ की स्थापना
बुद्ध
ने अपने अनुयायियों के लिए एक धार्मिक समुदाय या संघ की स्थापना की। इसमें भिक्षु और
भिक्षुणियाँ सम्मिलित होते थे। संघ ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
6.
कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत
बौद्ध
धर्म के अनुसार, प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है। सुकर्म से शुभ फल और कुकर्म से
दुःख मिलता है। यही कर्म पुनर्जन्म का कारण बनते हैं।
7.
निर्वाण की अवधारणा
बुद्ध
के अनुसार, जब मनुष्य तृष्णा, अज्ञान और मोह से मुक्त हो जाता है, तो वह निर्वाण प्राप्त
करता है। यह जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति की अवस्था है, जहाँ पूर्ण शांति और ज्ञान की
प्राप्ति होती है।
8.
तर्क और अनुभव पर बल
बौद्ध
धर्म अंधविश्वासों का विरोध करता है। बुद्ध ने कहा था कि किसी बात को केवल परंपरा से
नहीं, बल्कि अपने अनुभव और तर्क से सत्यापित करना चाहिए।
निष्कर्ष
बौद्ध
धर्म एक व्यावहारिक और मानवतावादी धर्म है जो आचरण, करुणा, और आत्मसंयम पर आधारित है।
यह न केवल भारत में बल्कि एशिया के अनेक देशों — श्रीलंका, म्यांमार, चीन, जापान, नेपाल,
और थाईलैंड — में फैला। बौद्ध धर्म की विशेषता यह है कि यह शांति, समानता और आत्मबोध
का मार्ग दिखाता है, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण संभव है।
सत्रीय कार्य-II
3) वेद क्या हैं? चारों वेदों पर संक्षेप में चर्चा
कीजिए।
उत्तर: ‘वेद’ संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है — ‘ज्ञान’
या ‘विद्या’। वेदों को सनातन धर्म के सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ माना जाता है।
इन्हें अपौरुषेय कहा गया है, अर्थात् ये किसी मनुष्य द्वारा रचित नहीं, बल्कि ऋषियों
को ईश्वर से प्राप्त दिव्य ज्ञान हैं। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है क्योंकि
ये सुनकर ग्रहण किए गए थे। इनकी रचना वैदिक संस्कृत में हुई है।
वेद
कुल चार हैं — ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार
है—
- ऋग्वेद: यह सबसे प्राचीन वेद है, जिसमें लगभग 10
मंडल और 1028 सूक्त हैं। इसमें विभिन्न देवताओं — जैसे अग्नि, इंद्र, वरुण, मित्र
आदि — की स्तुतियाँ (स्तुति-सूक्त) हैं। यह ज्ञान और भक्ति पर आधारित है।
- यजुर्वेद: इसमें यज्ञों और अनुष्ठानों के नियम-विधान
हैं। इसमें मंत्रों के साथ कर्मकांडों की विधियाँ दी गई हैं। यह कर्मकांड प्रधान
वेद है।
- सामवेद: इसे गान का वेद कहा जाता है। इसके
अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं, परंतु इन्हें संगीत और लय के साथ
गाने के लिए रूपांतरित किया गया है। यह संगीत और उपासना से संबंधित है।
- अथर्ववेद: इसमें लोकजीवन, स्वास्थ्य, औषधि, जादू-टोना
और तंत्र-मंत्र से जुड़ी बातें हैं। इसे गृहस्थ जीवन और व्यावहारिक ज्ञान
का वेद कहा जाता है।
निष्कर्षतः, वेद मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन ज्ञान-स्रोत
हैं, जो धर्म, दर्शन, विज्ञान, संगीत और समाज—सभी का मूल आधार माने जाते हैं।
4) नवपाषाण क्रांति की अवधारणा पर चर्चा कीजिए ।
उत्तर: नवपाषाण क्रांति (Neolithic Revolution) मानव इतिहास
का वह महत्वपूर्ण परिवर्तन काल था जब मनुष्य ने शिकार और संग्रहण की पुरानी जीवन-शैली
छोड़कर कृषि और पशुपालन पर आधारित जीवन अपनाया। यह क्रांति लगभग 9000 ईसा पूर्व से
4000 ईसा पूर्व के बीच हुई मानी जाती है।
पुरापाषाण
युग में मनुष्य भोजन के लिए जंगलों से फल, जड़ें और जानवरों का शिकार करता था। परंतु
नवपाषाण काल में उसने अनुभव और प्रयोग से यह समझा कि बीज बोने पर पौधे उगते हैं। इस
प्रकार उसने कृषि की शुरुआत की, जिससे उसे नियमित रूप से भोजन मिलने लगा।
इसके
साथ ही मनुष्य ने जानवरों को पालतू बनाना सीखा — जैसे गाय, बकरी, भेड़, कुत्ता और बैल।
इससे उसे दूध, मांस और खेती में सहायता मिलने लगी। कृषि और पशुपालन से स्थायी भोजन
स्रोत मिलने पर लोगों ने एक स्थान पर बसना शुरू किया। इससे ग्राम सभ्यताओं का विकास
हुआ।
नवपाषाण
काल में पत्थर के औज़ारों को घिसकर और चमकाकर बनाया जाने लगा, जिससे उनका उपयोग अधिक
प्रभावी हुआ। इसी काल में मिट्टी के बर्तन, बुनाई, और घरों का निर्माण प्रारंभ हुआ।
लोग गुफाओं से निकलकर कच्चे-मिट्टी के मकानों में बसने लगे।
निष्कर्षतः, नवपाषाण क्रांति ने मानव जीवन में एक मौलिक परिवर्तन
लाया। इससे मनुष्य भ्रमणशील जीवन से स्थायी जीवन की ओर बढ़ा और यही परिवर्तन आगे चलकर
सभ्यता के विकास का आधार बना। इसे मानव इतिहास की प्रथम आर्थिक और सामाजिक क्रांति
भी कहा जाता है।
5) हड़प्पा धर्म के प्रमुख तत्व क्या थे?
उत्तर: हड़प्पा सभ्यता (लगभग 2500 ईसा पूर्व – 1500 ईसा
पूर्व) भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन नगरीय सभ्यता थी। इसके लोगों की धार्मिक
मान्यताओं की जानकारी हमें मूर्तियों, मुहरों, मिट्टी की मूर्तिकाओं, और अवशेषों से
मिलती है। यद्यपि कोई लिखित प्रमाण स्पष्ट रूप से नहीं मिलता, परंतु पुरातात्त्विक
साक्ष्य उनके धार्मिक जीवन के कुछ प्रमुख तत्वों को दर्शाते हैं।
- मातृदेवी की उपासना:
हड़प्पावासी मातृदेवी (Mother Goddess) की पूजा करते थे। मिट्टी से बनी स्त्री
मूर्तियाँ, जिनमें स्त्रियाँ पुष्पों और गहनों से सजी होती थीं, उत्पत्ति और
उर्वरता की देवी के रूप में मानी जाती हैं।
- पुरुष देवता या
पशुपति महादेव: एक मुहर पर त्रिशूल, बैल और अन्य पशुओं से घिरे एक योगमुद्रा में
बैठे देवता की आकृति मिली है। इसे ‘पशुपति महादेव’ का प्रारंभिक रूप माना जाता
है, जो बाद में शिव के रूप में विकसित हुआ।
- वृक्ष और पशु-पूजा:
हड़प्पावासी पीपल वृक्ष, बैल, हाथी, साँप, आदि की भी पूजा करते थे। यह प्रकृति
और पशुओं के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
- लिंग और योनिपूजा:
उर्वरता से संबंधित कई लिंग और योनि के प्रतीक मिले हैं, जिससे उनके प्रजनन
शक्ति की पूजा का संकेत मिलता है।
- अमूर्त शक्तियों
में विश्वास: कुछ मुहरों और प्रतीकों से यह भी प्रतीत होता है कि वे अलौकिक
शक्तियों, जादू-टोना और ताबीज में विश्वास रखते थे।
निष्कर्षतः, हड़प्पा धर्म प्रकृति, उर्वरता और शक्तिपूजा पर
आधारित था। यह आगे चलकर वैदिक और हिंदू धार्मिक परंपराओं की नींव बना।
सत्रीय कार्य-III
6) काले और लाल बर्तन संस्कृति
उत्तर: काले और लाल बर्तन संस्कृति (Black and Red
Ware Culture) भारत की एक प्रमुख प्रागैतिहासिक संस्कृति है, जो लगभग 1450 ईसा पूर्व
से 700 ईसा पूर्व के बीच प्रचलित थी। इसमें मिट्टी के बर्तनों को अंदर से काला और बाहर
से लाल रंग देकर तैयार किया जाता था। ये बर्तन आमतौर पर हाथ से या चाक पर बनाए जाते
थे और इनमें घड़े, कटोरे, प्याले और कलश प्रमुख थे। इस संस्कृति के अवशेष गंगा, यमुना,
नर्मदा और गोदावरी घाटियों में पाए गए हैं। यह संस्कृति कृषि, पशुपालन और धातु-प्रयोग
से जुड़ी थी तथा लोहे के प्रारंभिक उपयोग का भी संकेत देती है।
7) आत्म ब्रह्म सिद्धांत
उत्तर: आत्मा-ब्रह्म सिद्धांत उपनिषदों का मूल दार्शनिक सिद्धांत है, जिसके अनुसार आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्म (सार्वभौमिक चेतना) मूलतः एक ही हैं। यह विचार “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ही ब्रह्म हूँ) जैसे महावाक्य में प्रकट होता है। इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है और समस्त जगत उसी का प्रकट रूप है। आत्मा का साक्षात्कार ही मोक्ष या मुक्ति का मार्ग है। अद्वैत वेदांत के आचार्य आदि शंकराचार्य ने इस सिद्धांत को दार्शनिक रूप से व्यवस्थित किया। इसका मूल भाव है — परमात्मा और जीवात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों एक ही परम सत्य के रूप हैं।
8) स्थानांतरण का सिद्धांत
मुख्य प्रकार:
ऊर्जा स्थानांतरण – ऊष्मा, विद्युत या यांत्रिक ऊर्जा एक माध्यम से दूसरे में स्थानांतरित होती है।यह सिद्धांत कई वैज्ञानिक और सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होता है।
जीवविज्ञान में – आनुवंशिक गुण माता-पिता से संतान में स्थानांतरित होते हैं।
अर्थशास्त्र में – धन, संसाधन और उत्पादन एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित किए जाते हैं।
मानव समाज में – प्रवास या जनसंख्या का स्थानांतरण कार्य अवसरों या प्राकृतिक आपदाओं के कारण होता है।
9) आजीवक
उत्तर: महाजनपद भारत के प्राचीन राजनीतिक इतिहास का महत्वपूर्ण
चरण था, जो लगभग 600 ईसा पूर्व में विकसित हुआ। वैदिक युग के छोटे-छोटे जनपद मिलकर
बड़े राजनीतिक राज्य बने, जिन्हें महाजनपद कहा गया। बौद्ध और जैन ग्रंथों में
16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है — जैसे मगध, कोशल, वत्स, अवंति, कुरु, पांचाल, अंग,
काशी आदि। इन राज्यों में कुछ राजतंत्रात्मक थे, जबकि कुछ गणतंत्रात्मक भी। महाजनपद
काल में नगरों, व्यापार, सिक्कों और प्रशासन का विकास हुआ। यही काल आगे चलकर मौर्य
साम्राज्य की नींव बना और भारतीय राजनीतिक एकता की दिशा में पहला कदम सिद्ध हुआ।
Mulsif Publication
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