Thursday, October 16, 2025

IGNOU Solved Assignment / BHIC 107 Hindi / July 2025 and January 2026 Sessions

Bachelor's of Arts (History)

History Honours (BAHIH) & F.Y.U.P. Major (BAFHI)

BHIC 107

IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)

भारत का इतिहास-IV (c. 1206-1550)


सत्रीय कार्य - I


प्रश्न 1: 12वीं से 15वीं शताब्दी तक के भारत के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए संस्कृत में शिलालेखों के महत्व की जाँच कीजिए।

उत्तर:

12वीं से 15वीं शताब्दी के भारत के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए, जहाँ फ़ारसी दरबारी इतिहास और वृत्तांत एक प्रमुख स्रोत हैं, वहीं संस्कृत शिलालेख एक वैकल्पिक और अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। ये शिलालेख हमें उस युग की एक अधिक सूक्ष्म और बहुआयामी तस्वीर बनाने में मदद करते हैं जो केवल सुल्तानों और उनके दरबार तक सीमित नहीं थी।

राजनीतिक और प्रशासनिक महत्व:

संस्कृत शिलालेख दिल्ली सल्तनत के बाहर और उसके प्रभाव क्षेत्र में मौजूद स्थानीय और क्षेत्रीय राज्यों, जैसे कि राजपूत, काकतीय, होयसल और विशेष रूप से विजयनगर साम्राज्य के बारे में जानकारी का प्राथमिक स्रोत हैं। ये प्रशस्तियाँ (स्तुतिपरक शिलालेख) शासकों की वंशावली, उनकी उपाधियों, सैन्य विजयों और प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर प्रकाश डालती हैं। उदाहरण के लिए, विजयनगर के शिलालेख नायंकर प्रणाली, भू-राजस्व और स्थानीय प्रशासन के बारे में बहुमूल्य जानकारी देते हैं, जिसका उल्लेख फ़ारसी स्रोतों में नहीं मिलता। दिल्ली के पालम बावली शिलालेख जैसे कुछ शिलालेखों में सुल्तान का उल्लेख तो है, लेकिन साथ ही स्थानीय व्यापारियों और समाज के बारे में भी जानकारी मिलती है, जो सल्तनत और स्थानीय आबादी के बीच के संबंधों को दर्शाती है।

सामाजिक-धार्मिक जानकारी:

ये शिलालेख उस काल के सामाजिक और धार्मिक जीवन को समझने के लिए अमूल्य हैं। अधिकांश शिलालेख मंदिरों की दीवारों पर, दान-पत्रों (ताम्रपत्रों) के रूप में या स्मारकों पर पाए जाते हैं। वे मंदिरों के निर्माण, मूर्तियों की स्थापना, ब्राह्मणों और मठों को भूमि या गाँव दान देने का विस्तृत विवरण देते हैं। इससे पता चलता है कि सल्तनत काल में भी हिंदू धार्मिक परंपराएँ और संस्थाएँ सक्रिय रूप से फल-फूल रही थीं और उन्हें स्थानीय शासकों और समुदायों का संरक्षण प्राप्त था। इन शिलालेखों से जाति व्यवस्था, सामाजिक रीति-रिवाजों, शिक्षा (अग्रहारों के माध्यम से) और उस समय की धार्मिक मान्यताओं के बारे में भी जानकारी मिलती है।

आर्थिक परिप्रेक्ष्य:

आर्थिक इतिहास के लिए भी संस्कृत शिलालेख महत्वपूर्ण हैं। भूमि अनुदान से संबंधित ताम्रपत्र शिलालेख कृषि संबंधों, भूमि के प्रकार, फसलों, सिंचाई तकनीकों और राजस्व की दरों को समझने में मदद करते हैं। वे विभिन्न प्रकार के करों, सिक्कों, माप-तौल की इकाइयों और व्यापारिक श्रेणियों (गिल्ड) का भी उल्लेख करते हैं। यह जानकारी हमें क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली को समझने में सक्षम बनाती है, जो अक्सर सल्तनत की केंद्रीकृत आर्थिक नीतियों से भिन्न होती थी।

संक्षेप में, संस्कृत शिलालेख फ़ारसी वृत्तांतों के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। वे एक गैर-दरबारी, स्थानीय और स्वदेशी दृष्टिकोण प्रदान करते हैं जो हमें शासक वर्ग से परे आम लोगों के जीवन, स्थानीय राजनीतिक संरचनाओं और उस काल की जीवंत सामाजिक-धार्मिक परंपराओं को समझने में मदद करता है। इनके बिना, 12वीं से 15वीं शताब्दी का हमारा ज्ञान अधूरा और एकतरफा होगा।


प्रश्न 2: दिल्ली के सुल्तानों के अधीन राजस्व के चरित्र पर एक टिप्पणी लिखिए तथा कुलीन वर्ग के बदलते चरित्र की जाँच कीजिए।

उत्तर:

दिल्ली सल्तनत की स्थिरता और विस्तार दो प्रमुख स्तंभों पर टिका था: एक सुव्यवस्थित राजस्व प्रणाली और एक वफादार कुलीन वर्ग। इन दोनों का चरित्र सल्तनत के पूरे दौर में विभिन्न सुल्तानों की नीतियों के साथ बदलता रहा।

राजस्व का चरित्र:

दिल्ली सल्तनत की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था, जिसे 'खराज' कहा जाता था। प्रारंभ में, यह प्रणाली मौजूदा स्थानीय प्रमुखों (खुत, मुकद्दम, चौधरी) पर निर्भर थी जो किसानों से कर वसूल कर राज्य को एक हिस्सा देते थे।

इक्ता प्रणाली: इल्तुतमिश ने इक्ता प्रणाली को संस्थागत रूप दिया, जिसमें सैन्य कमांडरों (इक्तादारों) को राजस्व वसूलने के लिए क्षेत्र सौंपे जाते थे। वे अपने सैनिकों और प्रशासन का खर्च निकालकर अधिशेष राशि ('फवाजिल') केंद्रीय खजाने में जमा करते थे।

अलाउद्दीन खिलजी के सुधार: अलाउद्दीन ने राजस्व प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन किए। उसने भूमि की पैमाइश ('बिस्वा' इकाई के आधार पर) करवाई और उपज का 50% सीधे राज्य द्वारा 'खराज' के रूप में निर्धारित किया। उसने बिचौलियों की शक्तियों को समाप्त कर दिया और अधिकांश भूमि को सीधे केंद्र के अधीन 'खालिसा' भूमि में बदल दिया। इसका उद्देश्य एक विशाल स्थायी सेना का खर्च उठाना था।

तुगलक काल में परिवर्तन: गयासुद्दीन तुगलक ने खिलजी की कठोरता को कम किया, जबकि मुहम्मद बिन तुगलक ने दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि की, जो अकाल के कारण विनाशकारी साबित हुई। फिरोज शाह तुगलक ने कई छोटे करों को समाप्त कर दिया, लेकिन उसने इक्ता प्रणाली को वंशानुगत बना दिया, जिससे केंद्र का नियंत्रण कमजोर हो गया। सल्तनत काल में 'जजिया' (गैर-मुसलमानों पर कर), 'जकात' (मुसलमानों पर धार्मिक कर) और 'खम्स' (लूट का माल) भी आय के अन्य स्रोत थे।

कुलीन वर्ग का बदलता चरित्र:

दिल्ली सल्तनत का कुलीन वर्ग (अमीर) कभी भी एक समान समूह नहीं था; इसकी संरचना और शक्ति समय-समय पर बदलती रही।

प्रारंभिक तुर्की शासक: इल्तुतमिश के समय, कुलीन वर्ग में मुख्य रूप से तुर्की गुलाम अधिकारी शामिल थे, जिन्हें 'चहलगानी' या 'चालीसा' के नाम से जाना जाता था। यह एक विशिष्ट और नस्लीय रूप से संगठित समूह था जो सुल्तान पर हावी होने की कोशिश करता था। बलबन ने इनकी शक्ति को कुचलकर सुल्तान की सर्वोच्चता स्थापित की।

खिलजी क्रांति: अलाउद्दीन खिलजी के सत्ता में आने से कुलीन वर्ग की संरचना में एक बड़ा बदलाव आया। उसने योग्यता को नस्ल से अधिक महत्व दिया। तुर्कों का एकाधिकार समाप्त हो गया और भारतीय मुसलमानों (जैसे मलिक काफूर), मंगोलों और अन्य गैर-तुर्की तत्वों को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया।

तुगलक काल में समावेश: मुहम्मद बिन तुगलक ने इस नीति को और आगे बढ़ाया और विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों, यहाँ तक कि निम्न मानी जाने वाली जातियों के लोगों को भी प्रशासन में शामिल किया, जिससे पुराने अमीर वर्ग में नाराजगी फैली। फिरोज शाह तुगलक के काल में कुलीन वर्ग फिर से शक्तिशाली हो गया क्योंकि उसने पदों को वंशानुगत बना दिया।

लोदी काल: लोदियों के अधीन, कुलीन वर्ग में मुख्य रूप से अफगान सरदार शामिल थे। उनकी राजत्व की धारणा समानता पर आधारित थी, जहाँ सुल्तान 'बराबर वालों में प्रथम' माना जाता था। इससे शक्तिशाली अफगान सरदारों ने सुल्तान की शक्ति को लगातार चुनौती दी, जिससे राज्य में अस्थिरता बनी रही।

निष्कर्षतः, सल्तनत का राजस्व चरित्र केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बीच झूलता रहा, जो सीधे तौर पर कुलीन वर्ग के चरित्र से जुड़ा था। एक मजबूत और विविध कुलीन वर्ग ने केंद्रीकृत राजस्व प्रणाली में मदद की, जबकि एक वंशानुगत और गुट-आधारित कुलीन वर्ग ने इसे कमजोर कर दिया।

 

सत्रीय कार्य – II

 

प्रश्न 3: बहमनी सल्तनत में अफ़ाकियों और दक्खिनियों के बीच संघर्ष की प्रकृति की आलोचनात्मक जाँच कीजिए।

उत्तर:

बहमनी सल्तनत के इतिहास में अफ़ाकियों और दक्खिनियों के बीच का संघर्ष एक केंद्रीय विषय था, जिसने अंततः राज्य को कमजोर कर दिया। यह संघर्ष केवल नस्लीय या धार्मिक नहीं, बल्कि मुख्य रूप से राजनीतिक और आर्थिक सत्ता पर नियंत्रण के लिए था।

समूहों की पहचान: 'दक्खिनी' वे मुस्लिम थे जो लंबे समय से दक्कन में बसे हुए थे, जिनमें स्थानीय धर्मांतरित लोग और उत्तरी भारत से आए शुरुआती अप्रवासी शामिल थे। वे सुन्नी मत के अनुयायी थे। इसके विपरीत, 'अफ़ाकी' (या परदेसी) नए अप्रवासी थे जो ईरान, इराक और मध्य एशिया से आए थे। वे अक्सर शिया थे और प्रशासनिक तथा सैन्य मामलों में अधिक कुशल माने जाते थे।

संघर्ष की प्रकृति:

1. राजनीतिक: संघर्ष का मूल कारण दरबार में उच्च पदों और प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा थी। सुल्तान अक्सर अफ़ाकियों को उनकी प्रशासनिक योग्यता के कारण पसंद करते थे, जिससे दक्खिनी कुलीन वर्ग में असुरक्षा और ईर्ष्या की भावना पैदा होती थी।

2. आर्थिक: यह संघर्ष आकर्षक इक्तों (जागीरों) और संसाधनों पर नियंत्रण के लिए भी था। दोनों गुट राज्य की संपत्ति में अधिक से अधिक हिस्सेदारी चाहते थे।

3. सांस्कृतिक और धार्मिक: अफ़ाकियों ने अपने साथ फ़ारसी संस्कृति और शिया मान्यताओं को लाया, जो स्थानीय दक्खिनी संस्कृति और सुन्नी इस्लाम से भिन्न थीं। इस धार्मिक और सांस्कृतिक अंतर ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को और गहरा कर दिया।

यह संघर्ष केवल दरबारी गुटबाजी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसके कारण कई बार हिंसक झड़पें और नरसंहार भी हुए। प्रधानमंत्री महमूद गवान, जो एक प्रतिभाशाली अफ़ाकी थे, ने दोनों गुटों में संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन दक्खिनी गुट के षड्यंत्र के कारण उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी मृत्यु बहमनी सल्तनत के लिए एक घातक आघात साबित हुई और इसके बाद राज्य का पतन तेज हो गया, जो अंततः पांच दक्कनी सल्तनतों में विघटित हो गया।


प्रश्न 4: अलाउद्दीन खिलजी की बाजार विनियमन नीतियों के उद्देश्यों की जाँच कीजिए। क्या इससे इच्छित उद्देश्य पूरा हुआ?

उत्तर:

अलाउद्दीन खिलजी की बाजार विनियमन नीतियां मध्यकालीन भारतीय आर्थिक इतिहास का एक अनूठा प्रयोग थीं। इन नीतियों के पीछे स्पष्ट और सुनियोजित उद्देश्य थे।

उद्देश्य:

अलाउद्दीन की बाजार नियंत्रण नीतियों का मुख्य उद्देश्य मंगोल आक्रमणों का सामना करने और अपने साम्राज्य विस्तार की योजनाओं को पूरा करने के लिए एक विशाल और शक्तिशाली स्थायी सेना को बनाए रखना था। सैनिकों को कम लेकिन निश्चित वेतन पर रखना तभी संभव था, जब उनकी क्रय शक्ति सुनिश्चित की जाए। इसके लिए सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित करना और उन्हें लंबे समय तक स्थिर रखना अनिवार्य था। इसके गौण उद्देश्यों में आम जनता को सस्ती दरों पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराना, व्यापारियों द्वारा की जाने वाली जमाखोरी और मुनाफाखोरी को रोकना तथा राज्य की सत्ता को अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में स्थापित करना शामिल था।

कार्यान्वयन और परिणाम:

इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, अलाउद्दीन ने दिल्ली में तीन अलग-अलग बाजार स्थापित किए: अनाज के लिए, कपड़े और कीमती वस्तुओं के लिए, और घोड़ों व मवेशियों के लिए। उसने सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें तय कर दीं। इन नियमों को सख्ती से लागू करने के लिए 'शहना-ए-मंडी' (बाजार अधीक्षक) और 'बरीद' (जासूस) नियुक्त किए गए। कम तौलने या अधिक कीमत वसूलने पर कठोर दंड का प्रावधान था।

उद्देश्य की पूर्ति:

हाँ, अपने इच्छित उद्देश्य में अलाउद्दीन पूरी तरह सफल रहा। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन के पूरे शासनकाल में दिल्ली में कीमतों में कोई वृद्धि नहीं हुई, यहाँ तक कि अकाल के समय भी। इस मूल्य स्थिरता के कारण वह सफलतापूर्वक एक बड़ी सेना को कम वेतन पर बनाए रखने में सक्षम हुआ, जिसने मंगोलों को सफलतापूर्वक खदेड़ दिया। हालाँकि, यह व्यवस्था दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित थी और सुल्तान की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गई क्योंकि यह एक अत्यधिक बलपूर्वक और केंद्रीकृत प्रणाली थी।


प्रश्न 5: 12वीं और 15वीं शताब्दी के बीच भारत में चित्रकला की परंपराओं पर एक नोट लिखिए।

उत्तर:

12वीं और 15वीं शताब्दी के बीच की अवधि भारतीय चित्रकला के लिए एक संक्रमण काल थी। इस दौरान प्राचीन भारतीय परंपराएं जारी रहीं और साथ ही सल्तनत के प्रभाव में एक नई इंडो-फ़ारसी शैली का विकास भी हुआ। इस काल की चित्रकला मुख्य रूप से पांडुलिपि चित्रण के रूप में मिलती है।

पाल शैली (पूर्वी भारत): 12वीं शताब्दी तक बंगाल और बिहार में पाल शासकों के संरक्षण में यह शैली विकसित हुई। इसका विषय मुख्य रूप से बौद्ध धर्म था। ताड़ के पत्तों पर बनी इन पांडुलिपियों में अजंता की परंपरा से प्रभावित, लहरदार रेखाओं और सौम्य रंगों का प्रयोग दिखता है। तुर्की आक्रमणों के बाद इस शैली का पतन हो गया।

अपभ्रंश शैली (पश्चिमी भारत): गुजरात और राजस्थान के क्षेत्र में विकसित इस शैली को जैन संरक्षकों का समर्थन प्राप्त था। इसमें ताड़ के पत्तों और बाद में कागज का उपयोग किया गया। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं: चमकीले और सपाट रंग, कोणीय चेहरे, और चेहरे से बाहर निकली हुई "परली आँख"। इस शैली में 'कल्पसूत्र' और 'कालकाचार्य कथा' जैसे जैन ग्रंथों का चित्रण प्रमुख है।

सल्तनत चित्रकला: दिल्ली सल्तनत के अधीन, विशेष रूप से 14वीं और 15वीं शताब्दी में, एक नई चित्रकला शैली का उदय हुआ जो भारतीय और फ़ारसी परंपराओं का मिश्रण थी। मांडू में चित्रित 'नियामतनामा' जैसी पांडुलिपियाँ इस इंडो-इस्लामिक संश्लेषण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस शैली ने बाद में विकसित होने वाली मुगल और दक्कनी चित्रकला के लिए आधार तैयार किया।

इस प्रकार, यह काल पुरानी शैलियों के पतन और एक नई जीवंत मिश्रित शैली के उदय का साक्षी बना, जिसने भारतीय कला को एक नई दिशा दी।

 

सत्रीय कार्य – III

 

6) अमीर खुसरो

उत्तर:

अमीर खुसरो (1253-1325) दिल्ली सल्तनत काल के एक महान कवि, संगीतकार, विद्वान और सूफी संत थे। वे निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे और उन्होंने बलबन से लेकर गयासुद्दीन तुगलक तक सात सुल्तानों का शासन देखा। उन्हें 'तूती-ए-हिन्द' (भारत का तोता) कहा जाता है। उन्होंने फ़ारसी और हिंदवी (खड़ी बोली का प्रारंभिक रूप) दोनों में रचनाएं कीं। उन्हें कव्वाली, सितार और तबले के आविष्कार का श्रेय भी दिया जाता है। उनकी ऐतिहासिक मसनवियाँ जैसे 'खजाइन-उल-फुतुह' और 'तुगलकनामा' उस काल के इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। वे भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक हैं।


7) नयनकार प्रणाली

उत्तर:

नयनकार प्रणाली विजयनगर साम्राज्य (14वीं-17वीं शताब्दी) की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक-सैन्य व्यवस्था थी। इस प्रणाली के तहत, राजा सैन्य प्रमुखों या नायकों को एक भू-क्षेत्र सौंपता था, जिसे 'अमरम' कहा जाता था। इस भूमि से प्राप्त राजस्व के बदले में, नायक को एक निश्चित संख्या में पैदल सैनिक, घुड़सवार और हाथी राजा की सेवा के लिए बनाए रखने होते थे। उन्हें भू-राजस्व का एक हिस्सा केंद्रीय खजाने में भी जमा करना होता था। यह प्रणाली सल्तनत की इक्ता प्रणाली से मिलती-जुलती थी और इसने विजयनगर साम्राज्य के सैन्य विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन बाद में शक्तिशाली नायकों के कारण यह राज्य के विघटन का कारण भी बनी।


8) मुहम्मद तुगलक की सांकेतिक मुद्रा

उत्तर:

मुहम्मद बिन तुगलक ने 1329-30 में अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को वित्तपोषित करने और चांदी की वैश्विक कमी से निपटने के लिए 'सांकेतिक मुद्रा' की शुरुआत की। उसने चांदी के 'टंका' के मूल्य के बराबर पीतल या तांबे के सिक्के जारी किए। यह एक प्रगतिशील विचार था, जो चीन और फारस में पहले से ही प्रचलन में था। हालाँकि, यह योजना बुरी तरह विफल रही क्योंकि राज्य सिक्कों की ढलाई पर एकाधिकार नहीं रख सका। लोगों ने बड़े पैमाने पर अपने घरों में नकली सिक्के बनाने शुरू कर दिए, जिससे अर्थव्यवस्था ठप हो गई। अंततः, सुल्तान को सांकेतिक मुद्रा वापस लेनी पड़ी और खजाने से असली चांदी के सिक्के देकर उन्हें बदलना पड़ा, जिससे राजकोष को भारी नुकसान हुआ।


9) सैन्य प्रौद्योगिकी

उत्तर:

12वीं से 15वीं शताब्दी के दौरान भारत की सैन्य प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण बदलाव आए, खासकर तुर्कों के आगमन के साथ। उन्होंने बेहतर धातु विज्ञान पर आधारित तकनीकों का परिचय दिया। लोहे की रकाब (iron stirrup) के उपयोग ने घुड़सवार सेना को अत्यधिक प्रभावी बना दिया, जिससे गति और प्रहार क्षमता दोनों बढ़ी। तुर्कों ने घेराबंदी युद्ध कला में भी सुधार किया और मंगनीक (catapult) जैसे उन्नत घेराबंदी इंजनों का इस्तेमाल किया। इस अवधि के अंत तक, विशेष रूप से बहमनी और गुजरात जैसे क्षेत्रीय राज्यों में, बारूद आधारित हथियारों जैसे तोप और बंदूक का प्रारंभिक उपयोग भी शुरू हो गया था, जिसने युद्ध की प्रकृति को बदलना शुरू कर दिया।


10) दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन

उत्तर:

भक्ति आंदोलन की जड़ें दक्षिण भारत में 7वीं से 12वीं शताब्दी के बीच अलवार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) संतों की परंपराओं में हैं। इस आंदोलन ने वेदों के कर्मकांड और जाति-व्यवस्था की कठोरता को चुनौती दी। इसका मूल सिद्धांत ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत, गहन प्रेम और समर्पण ('भक्ति') के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करना था। इन संतों ने स्थानीय भाषाओं (जैसे तमिल) में भक्तिपूर्ण भजनों की रचना की, जिससे धर्म आम लोगों के लिए सुलभ हो गया। उन्होंने समानता का संदेश दिया और भक्ति को सभी के लिए खुला मार्ग बताया। इसी आंदोलन ने बाद में पूरे उत्तर भारत में भक्ति परंपरा को प्रेरित किया।

Mulsif Publication

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