

Bachelor's of Arts (History)
History Honours (BAHIH) & F.Y.U.P. Major (BAFHI)
BHIC 109
IGNOU Solved Assignment (July 2025 & Jan 2026 Session)
भारत का इतिहास-V (c. 1550-1605)
सत्रीय कार्य - I
प्रश्न 1)
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के दौरान दक्षिण
भारत में नायक राजनीति
के उदय पर चर्चा
कीजिए।
उत्तर:
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में
दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य में
एक महत्वपूर्ण परिवर्तन
हुआ, जिसे 'नायक
राजनीति' का उदय
कहा जाता है।
यह विजयनगर साम्राज्य
के पतन के बाद की
एक प्रमुख विशेषता
थी। नायक मूल
रूप से विजयनगर
साम्राज्य के अधीन
सैन्य गवर्नर या
प्रांतीय शासक थे,
जिन्हें एक निश्चित
क्षेत्र (अमरम) का
प्रशासन और राजस्व
वसूलने का अधिकार
दिया गया था। इसके बदले
में उन्हें केंद्रीय
सत्ता को एक निश्चित वार्षिक श्रद्धांजलि
देनी होती थी और आवश्यकता
पड़ने पर सैन्य
सहायता प्रदान करनी
होती थी।
नायक राजनीति का उदय:
1565 में तालीकोटा के युद्ध
में विजयनगर साम्राज्य
की निर्णायक हार
ने केंद्रीय सत्ता
को अत्यंत कमजोर
कर दिया। इस
शक्ति शून्य का
लाभ उठाकर, कई
शक्तिशाली नायकों ने
धीरे-धीरे अपनी
स्वतंत्रता का दावा
करना शुरू कर दिया और
अपने-अपने क्षेत्रों
में स्वतंत्र शासक
के रूप में कार्य करने
लगे। उन्होंने विजयनगर
की प्रशासनिक और
सैन्य संरचनाओं को
विरासत में लिया,
लेकिन अब उनकी निष्ठा अपने
स्वयं के राजवंशों
के प्रति थी।
मदुरै, तंजौर (तंजावुर),
गिंगी (सेंजी) और
इक्केरी (केलाडी) के नायक राज्य इस
दौर के सबसे प्रमुख उदाहरणों
में से हैं।
नायक राजनीति की विशेषताएँ:
• विखंडित
संप्रभुता: विजयनगर की विशाल
एकीकृत राजनीतिक इकाई
कई छोटे, अक्सर
एक-दूसरे से
प्रतिस्पर्धा करने वाले
राज्यों में विभाजित
हो गई। इन नायकों ने
'राजा' या 'महाराजा'
जैसी उपाधियाँ धारण
कीं और अपने स्वयं के
सिक्के चलाए, जो
उनकी संप्रभुता का
प्रतीक था।
• सैन्यीकरण:
यह युग निरंतर
सैन्य संघर्षों का
था। प्रत्येक नायक
शासक एक मजबूत
सेना रखता था,
जिसमें पैदल सेना,
घुड़सवार सेना और
तोपखाने शामिल थे।
किलों का सामरिक
महत्व बहुत बढ़
गया और 'पालैयक्करार'
(पॉलिगर) प्रणाली, जो नायकों
के अधीन छोटे
सैन्य प्रमुखों की
एक परत थी, इस सैन्यीकृत
समाज का आधार बनी।
• कला और वास्तुकला का
संरक्षण: राजनीतिक विखंडन के
बावजूद, यह काल सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध
था। नायक शासकों
ने कला, साहित्य
और वास्तुकला के
महान संरक्षक के
रूप में विजयनगर
की परंपरा को
जारी रखा। मदुरै
का मीनाक्षी मंदिर,
तंजौर का बृहदीश्वर
मंदिर (जिसका पुनर्निर्माण
और विस्तार किया
गया) और अन्य कई भव्य
मंदिर परिसरों का
निर्माण इस काल की देन
है। नायक शैली
की वास्तुकला अपनी
भव्यता, ऊंचे गोपुरमों
और विस्तृत नक्काशीदार
स्तंभों वाले 'हजार-स्तंभ' मंडपों
के लिए जानी
जाती है।
• आर्थिक नीतियाँ: नायकों ने
कृषि, सिंचाई और
व्यापार को बढ़ावा
दिया। उन्होंने नए
मंदिर नगरों की
स्थापना की जो आर्थिक गतिविधियों
के केंद्र बन
गए। यूरोपीय व्यापारिक
कंपनियों (पुर्तगाली, डच, और बाद में
अंग्रेज) के साथ
उनके संबंध थे,
जिससे समुद्री व्यापार
को भी बढ़ावा
मिला।
संक्षेप में, सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में
नायक राजनीति का
उदय विजयनगर साम्राज्य
के विघटन का
परिणाम था। इसने
दक्षिण भारत को राजनीतिक रूप से विखंडित कर दिया,
लेकिन साथ ही एक विशिष्ट
क्षेत्रीय कला, संस्कृति
और प्रशासनिक प्रणाली
को भी जन्म दिया जो
इस क्षेत्र की
पहचान बनी। यह काल एक
साम्राज्य के अंत
और जीवंत क्षेत्रीय
शक्तियों के उदय
का प्रतीक है।
प्रश्न 2) ज़ब्त प्रणाली पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ज़ब्त प्रणाली मुगल साम्राज्य
के दौरान, विशेष
रूप से सम्राट
अकबर के शासनकाल
में विकसित की
गई भू-राजस्व
निर्धारण की एक
मानकीकृत और व्यवस्थित
पद्धति थी। इसे मुगल राजस्व
प्रणाली की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में
से एक माना जाता है।
इस प्रणाली का
मुख्य उद्देश्य राजस्व
की मात्रा में
मनमानी को समाप्त
करना और राज्य
तथा किसानों दोनों
के लिए एक निश्चित और पूर्वानुमानित
प्रणाली स्थापित करना
था।
विकास और प्रक्रिया:
ज़ब्त प्रणाली का विकास
शेरशाह सूरी द्वारा
शुरू किए गए भूमि सुधारों
पर आधारित था,
लेकिन इसे अकबर
के राजस्व मंत्री,
राजा टोडरमल ने
वैज्ञानिक और विस्तृत
रूप प्रदान किया।
इसलिए इसे 'टोडरमल
बंदोबस्त' के नाम
से भी जाना जाता है।
इस प्रणाली के
कार्यान्वयन में कई
चरण शामिल थे:
1. भूमि
की पैमाइश (Paimaish): सबसे पहले,
खेती योग्य भूमि
को मानकीकृत माप
इकाइयों का उपयोग
करके सटीक रूप
से मापा जाता
था। इसके लिए
लोहे के छल्लों
से जुड़ी बांस
की छड़ी 'जरीब'
का उपयोग किया
जाता था, जो मौसम के
साथ घटती-बढ़ती
नहीं थी और माप में
सटीकता सुनिश्चित करती
थी।
2. भूमि
का वर्गीकरण: पैमाइश के
बाद, भूमि को उसकी उर्वरता
और खेती की निरंतरता के आधार पर चार
श्रेणियों में वर्गीकृत
किया जाता था:
• पोलज:
सबसे उपजाऊ भूमि
जिस पर हर साल खेती
होती थी।
• परौती:
वह भूमि जिसे
अपनी उर्वरता वापस
पाने के लिए एक या
दो साल के लिए खाली
छोड़ दिया जाता
था।
• चचर:
वह भूमि जिसे
तीन से चार साल तक
खाली छोड़ा जाता
था।
• बंजर:
वह भूमि जिस
पर पांच या अधिक वर्षों
से खेती नहीं
हुई थी।
3. औसत
उपज का निर्धारण: प्रत्येक
प्रकार की भूमि के लिए,
विभिन्न फसलों की
प्रति इकाई क्षेत्र
(जैसे प्रति बीघा)
औसत उपज का पता लगाया
जाता था। यह पिछले दस
वर्षों (1570-1580) के आंकड़ों
पर आधारित था,
जिसे 'दहसाला' प्रणाली
कहा गया।
4. राजस्व
का निर्धारण: राज्य का
हिस्सा, जिसे 'माल'
कहा जाता था,
आमतौर पर औसत उपज का
एक-तिहाई तय
किया गया था। इस उपज
को फिर स्थानीय
बाजार में पिछले
दस वर्षों की
औसत कीमतों के
आधार पर नकद में परिवर्तित
कर दिया जाता
था। इससे किसानों
को यह स्पष्टता
रहती थी कि उन्हें कितनी
राशि कर के रूप में
चुकानी है, और यह नकद
में देय होती
थी।
विशेषताएँ
और प्रभाव:
ज़ब्त प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता
इसकी मानकीकरण और
निष्पक्षता की कोशिश
थी। इसने स्थानीय
अधिकारियों (जैसे आमिल
या कानूनगो) के
विवेकाधीन अधिकारों को कम कर दिया,
जिससे भ्रष्टाचार पर
अंकुश लगा। किसानों
को भी पहले से पता
होता था कि उन्हें कितना
कर देना है,
जिससे अनिश्चितता समाप्त
हो गई। राज्य
के लिए, यह एक स्थिर
और नियमित आय
का स्रोत बन
गया।
हालांकि, यह प्रणाली
उन क्षेत्रों में
ही सफल रही जहां भूमि
की पैमाइश आसानी
से की जा सकती थी,
जैसे कि उत्तर
भारत के समतल मैदान। बंगाल,
गुजरात और दक्कन
जैसे दूरस्थ प्रांतों
में इसे पूरी
तरह से लागू करना मुश्किल
था। इसके अलावा,
यदि फसल खराब
हो जाती थी या कीमतों
में भारी गिरावट
आती थी, तो नकद में
एक निश्चित राशि
का भुगतान किसानों
के लिए बोझ बन सकता
था। इन सीमाओं
के बावजूद, ज़ब्त
प्रणाली मुगल प्रशासन
का एक आधार स्तंभ बनी
और इसने बाद
की भारतीय राजस्व
प्रणालियों, यहाँ तक
कि ब्रिटिश काल
की प्रणालियों को
भी प्रभावित किया।
सत्रीय कार्य - II
प्रश्न 3)
भारत में मुगल आगमन
की पूर्व संध्या पर
फारसी भाषा और साहित्य
के विकास पर चर्चा
कीजिए।
उत्तर:
मुगलों के भारत
आगमन (1526) से पहले
ही फारसी भाषा
यहाँ की प्रशासनिक,
साहित्यिक और सांस्कृतिक
जीवन में गहराई
से स्थापित हो
चुकी थी। इसका
श्रेय मुख्य रूप
से दिल्ली सल्तनत
(1206-1526) के शासकों को
जाता है, जिन्होंने
फारसी को अपनी राजभाषा बनाया। सल्तनत
काल में फारसी
केवल शासक वर्ग
की भाषा नहीं
रही, बल्कि यह
विद्वानों, कवियों और
सूफियों के बीच अभिव्यक्ति का एक प्रमुख माध्यम
बन गई।
इस काल के
सबसे महान भारतीय-फारसी कवि
अमीर खुसरो थे,
जिन्होंने फारसी काव्य
में भारतीय विषयों
और मुहावरों का
समावेश कर एक नई शैली
'सबक-ए-हिन्दी'
(भारतीय शैली) को
जन्म दिया। उनकी
कविताएँ और गद्य भारतीय संस्कृति
और फारसी भाषा
के संश्लेषण का
अद्भुत उदाहरण हैं।
इसके अतिरिक्त, जियाउद्दीन
बरनी जैसे इतिहासकारों
ने 'तारीख-ए-फिरोजशाही' जैसे महत्वपूर्ण
ऐतिहासिक ग्रंथ फारसी
में लिखे, जिससे
यह ज्ञान और
इतिहास-लेखन की भाषा के
रूप में स्थापित
हुई।
सूफी संतों ने
भी फारसी के
प्रसार में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। उन्होंने
अपने उपदेशों, पत्रों
(मकतूबात) और रहस्यवादी
साहित्य की रचना फारसी में
की, जिससे यह
भाषा अभिजात वर्ग
से निकलकर आम
लोगों तक पहुँची।
दक्कन और गुजरात
जैसे क्षेत्रीय सल्तनतों
ने भी फारसी
को अपने दरबारों
में संरक्षण दिया।
इस प्रकार, जब
बाबर भारत आया,
तो उसे एक ऐसी भूमि
मिली जहाँ फारसी
भाषा की एक समृद्ध साहित्यिक
और प्रशासनिक विरासत
पहले से ही मौजूद थी,
जिसे मुगलों ने
आगे बढ़ाया और
नई ऊँचाइयों पर
पहुँचाया।
प्रश्न 4)
अकबर के शासनकाल के
दौरान मुगल साम्राज्य के
क्षेत्रीय विस्तार पर एक नोट
लिखिए।
उत्तर:
अकबर
(1556-1605) का शासनकाल मुगल साम्राज्य
के लिए निरंतर
और सुनियोजित क्षेत्रीय
विस्तार का काल था। उसने
अपनी सैन्य शक्ति
और कूटनीतिक कौशल
का उपयोग करके
मुगल सत्ता को
दिल्ली-आगरा क्षेत्र
से बढ़ाकर एक
विशाल अखिल भारतीय
साम्राज्य में बदल
दिया।
प्रारंभ में, उसने
1556 में पानीपत की
दूसरी लड़ाई में
हेमू को हराकर
उत्तर भारत पर अपना नियंत्रण
मजबूत किया। इसके
बाद, उसने मध्य
भारत में मालवा
और गोंडवाना पर
विजय प्राप्त की।
अकबर की राजपूत
नीति उसके विस्तार
का एक महत्वपूर्ण
हिस्सा थी। उसने
आमेर (जयपुर) जैसे
कई राजपूत राज्यों
के साथ वैवाहिक
और सैन्य गठबंधन
किए, जबकि मेवाड़
जैसे राज्यों के
खिलाफ, जिन्होंने अधीनता
स्वीकार नहीं की,
उसने चित्तौड़ और
रणथंभौर जैसे मजबूत
किलों पर कब्जा
कर लिया।
1570 के दशक में,
उसने गुजरात पर
विजय प्राप्त की,
जिससे साम्राज्य को
समृद्ध बंदरगाहों और
समुद्री व्यापार पर
नियंत्रण मिला। इसके
तुरंत बाद, उसने
पूर्व में बिहार
और बंगाल को
जीता, जो कृषि और राजस्व
की दृष्टि से
अत्यंत महत्वपूर्ण थे।
अपने शासन के
बाद के वर्षों
में, अकबर ने उत्तर-पश्चिमी
सीमा को सुरक्षित
करने पर ध्यान
केंद्रित किया। उसने
काबुल, कश्मीर, सिंध
और बलूचिस्तान को
साम्राज्य में मिला
लिया, जिससे विदेशी
आक्रमणों का खतरा
कम हो गया। अंत में,
उसने दक्कन की
ओर रुख किया
और खानदेश, बरार
और अहमदनगर के
कुछ हिस्सों पर
अधिकार कर लिया।
इस प्रकार, अकबर
के शासनकाल के
अंत तक, मुगल
साम्राज्य उत्तर में
हिमालय से लेकर दक्षिण में
गोदावरी नदी तक और पश्चिम
में सिंध से लेकर पूर्व
में बंगाल तक
फैल चुका था।
प्रश्न 5)
मध्यकालीन दक्कन के किलों
की मुख्य विशेषताएँ क्या
थीं? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
मध्यकालीन दक्कन के
किले अपनी दुर्जेय
संरचना, सामरिक स्थिति
और उन्नत रक्षा
प्रणालियों के लिए
विख्यात थे। ये किले केवल
सैन्य चौकियां नहीं,
बल्कि सत्ता और
प्रशासन के महत्वपूर्ण
केंद्र भी थे। इनकी मुख्य
विशेषताएँ निम्नलिखित थीं:
1. भौगोलिक
स्थिति का उपयोग: दक्कन
के अधिकांश किले,
जैसे दौलताबाद, गोलकुंडा
और बीदर, विशाल
चट्टानी पहाड़ियों या
पठारों पर बनाए गए थे।
इनमें प्राकृतिक सुरक्षा
जैसे खड़ी चट्टानों
और गहरी खाइयों
का चतुराई से
उपयोग किया जाता
था, जिससे उन
पर हमला करना
अत्यंत कठिन हो जाता था।
2. बहु-स्तरीय सुरक्षा: इन
किलों में सुरक्षा
के लिए कई स्तरों वाली
दीवारों (प्रकारों) की एक श्रृंखला होती थी।
बाहरी दीवारें मोटी
और मजबूत होती
थीं, जिनमें नियमित
अंतराल पर बुर्ज
(bastions) बने होते थे।
इन दीवारों के
भीतर आवासीय परिसर,
महल, मस्जिदें, मंदिर
और बाजार स्थित
होते थे।
3. जटिल
प्रवेश द्वार: किलों के
प्रवेश द्वार बहुत
जटिल और घुमावदार
होते थे, ताकि
दुश्मन की सेना आसानी से
अंदर न आ सके। दरवाजों
पर हाथियों के
हमले को रोकने
के लिए नुकीली
कीलें लगाई जाती
थीं और द्वारों
के आसपास गुप्त
स्थान होते थे जहाँ से
सैनिक हमला कर सकते थे।
4. जल
प्रबंधन और आत्मनिर्भरता: लंबी
घेराबंदी के दौरान
आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए इन
किलों के अंदर जल संचयन
और भंडारण की
उत्कृष्ट व्यवस्था होती थी।
वर्षा जल को इकट्ठा करने
के लिए विशाल
जलाशय (टांके) और
हौज बनाए जाते
थे। इसके अलावा,
अनाज को संग्रहीत
करने के लिए बड़े अन्न
भंडार भी होते थे। गोलकुंडा
किले की ध्वनिक
प्रणाली (acoustic system) और दौलताबाद
का अंधकारमय, भ्रामक
मार्ग उनकी अद्वितीय
इंजीनियरिंग के उदाहरण
हैं।
सत्रीय कार्य – III
प्रश्न 6)
अखलाक साहित्य
उत्तर:
अखलाक साहित्य, इस्लामी बौद्धिक
परंपरा में नीतिशास्त्र
और नैतिक दर्शन
से संबंधित साहित्य
की एक शैली है। इसका
मुख्य केंद्र 'अदब'
(उचित आचरण) और
'अखलाक' (नैतिकता) की अवधारणाएँ
हैं। इस साहित्य
में शासकों, दरबारियों
और आम लोगों
के लिए आदर्श
आचरण, न्यायपूर्ण शासन,
और व्यक्तिगत तथा
सामाजिक नैतिकता के
सिद्धांतों पर चर्चा
की जाती है।
यह यूनानी दर्शन,
विशेष रूप से अरस्तू और
प्लेटो के विचारों
से प्रभावित था,
जिसे इस्लामी सिद्धांतों
के साथ जोड़ा
गया। नसीरुद्दीन तुसी
की 'अखलाक-ए-नासिरी' इस शैली का एक
उत्कृष्ट उदाहरण है,
जिसका मुगल भारत
में व्यापक रूप
से अध्ययन किया
जाता था।
प्रश्न 7)
असद बुरूजी
उत्तर:
(संभवतः यह 'असद
बेग काजविनी' का
उल्लेख है, जो एक मुगल
दरबारी और लेखक था।)
असद बेग काजविनी,
अकबर और जहाँगीर
के शासनकाल में
एक मुगल अधिकारी
और दरबारी था।
वह अपनी संस्मरण
कृति 'वाक़यात-ए-असद बेग'
या 'हालात-ए-असद बेग'
के लिए जाना
जाता है। यह कृति उस
काल के दरबार
की राजनीति, महत्वपूर्ण
घटनाओं और सामाजिक
जीवन का एक मूल्यवान प्रत्यक्षदर्शी विवरण
प्रस्तुत करती है।
उसने अबुल फजल
की मृत्यु के
बाद की घटनाओं,
दक्कन के अभियानों
और दरबार के
षड्यंत्रों का विस्तार
से वर्णन किया
है। उसका लेखन
मुगल काल के इतिहास को
समझने के लिए एक महत्वपूर्ण
गैर-आधिकारिक स्रोत
माना जाता है।
प्रश्न 8)
दूसरा अफगान साम्राज्य
उत्तर:
दूसरा अफगान साम्राज्य,
जिसे सूर साम्राज्य
(1540-1555) के नाम से
जाना जाता है,
की स्थापना शेरशाह
सूरी ने की थी। 1540 में कन्नौज
(बिलग्राम) के युद्ध
में मुगल बादशाह
हुमायूँ को पराजित
करने के बाद शेरशाह ने
दिल्ली की गद्दी
पर अधिकार कर
लिया। यह साम्राज्य
अपनी छोटी अवधि
के बावजूद प्रशासनिक
सुधारों के लिए विख्यात है। शेरशाह
ने एक मजबूत
केंद्रीकृत शासन, मानकीकृत
मुद्रा (रुपया), सड़क
नेटवर्क (जैसे ग्रैंड
ट्रंक रोड) और एक कुशल
भू-राजस्व प्रणाली
की शुरुआत की।
1555 में हुमायूँ द्वारा सिकंदर
सूर को पराजित
करने के बाद इस साम्राज्य
का अंत हो गया और
भारत में मुगल
सत्ता की पुनर्स्थापना
हुई।
प्रश्न 9) खंडीय राज्य सिद्धांत
उत्तर:
खंडीय राज्य सिद्धांत
(Segmentary State Theory) दक्षिण
एशियाई राज्यों, विशेषकर
मध्यकालीन दक्षिण भारत
के चोल साम्राज्य
जैसे राज्यों की
प्रकृति को समझने
के लिए इतिहासकार
बर्टन स्टीन द्वारा
प्रस्तुत एक मॉडल
है। इस सिद्धांत
के अनुसार, राज्य
में एक मजबूत
केंद्रीय कोर होता
था जहाँ राजा
का वास्तविक राजनीतिक
नियंत्रण होता था,
लेकिन जैसे-जैसे
केंद्र से दूरी बढ़ती जाती
थी, उसकी शक्ति
कम होती जाती
थी। परिधीय क्षेत्रों
(खंडों) पर स्थानीय
सरदारों का शासन होता था,
जो राजा की संप्रभुता को केवल अनुष्ठानिक रूप से स्वीकार करते थे,
लेकिन अपने क्षेत्रों
में स्वायत्त होते
थे। यह मॉडल एक केंद्रीकृत,
नौकरशाही साम्राज्य के विचार
को चुनौती देता
है।
प्रश्न 10) ज़मींदारी अधिकार
उत्तर:
ज़मींदारी अधिकार मध्यकालीन
और प्रारंभिक आधुनिक
भारत में भूमि
से जुड़े वंशानुगत
अधिकार थे। ज़मींदार
ग्रामीण समाज में
एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ
था, जिसके पास
कुछ गाँवों या
एक क्षेत्र पर
विभिन्न प्रकार के
अधिकार होते थे।
उसका मुख्य कार्य
राज्य के लिए किसानों से भू-राजस्व एकत्र
करना था, जिसके
बदले में उसे संग्रह का
एक हिस्सा (लगभग
10-25%) मिलता था। राजस्व
संग्रह के अलावा,
उसके पास स्थानीय
स्तर पर कानून
और व्यवस्था बनाए
रखने और आवश्यकता
पड़ने पर राज्य
को सैन्य सहायता
प्रदान करने की भी जिम्मेदारी
होती थी। ये अधिकार अक्सर
वंशानुगत होते थे
और इन्हें खरीदा
या बेचा भी जा सकता
था।
Mulsif Publication
Website:-
https://www.mulsifpublication.in
Contact:-
tsfuml1202@gmail.com
No comments:
Post a Comment